Monday, 28 September 2020

युवावस्था में भूकम्प की -सी भयंकरता होती है :भगत सिंह

भगत सिंह 
आज भगत सिंह की 
जयंती है। 'युवक' 
शीर्षक से यह लेख 
1925 में छपा था। 
▪️युवावस्था मानव - जीवन का वसंतकाल है। उसे पाकर मनुष्य मतवाला हो जाता है। विधाता की दी हुई सारी शक्तियां सहस्त्र धारा होकर फुट पड़ती हैं। 16 से 25 वर्ष तक हाड़ - चाम के संदूक में संसार - भर के हाहाकरों को समेटकर विधाता बंद कर देता है। युवावस्था देखने में तो शस्यश्यामला वसुंधरा से भी सुंदर है, पर इसके अंदर भूकम्प की - सी भयंकरता भरी हुई है। इसलिए यूअवस्था में मनुष्य के लिए केबल दो ही मार्ग हैं - वह चढ़ सकता है अधः पात के अंधेरे खंदक में। चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक, चाहे तो विलासी बन सकता है युवक। वह देबता बन सकता है। 
▪️संसार में युवक का ही साम्राज्य है। युवक के कृतिमान से संसार का इतिहास भरा पड़ा है। युवक ही रणचंडी के ललाट की रेखा है। वह महाभारत के भीष्मपर्व की पहली ललकार के समान विकराल है। 
अगर किसी विशाल ह्रदय की आवश्यकता हो, तो युवकों से मांगो। रसिकता उसी के बांटे पड़ी है। भावुकता पर उसी का सिक्का है। वह छंद शास्त्र से अनभिज्ञ होने पर भी परतिभाशाली कवि है। वह रसों की परिभाषा नहीं जनता, पर वह कविता का सच्चा मर्मज्ञ है। पतितों के उत्थान और संसार के उद्धारक सूत्र उसी के हाथ में हैं। 
▪️ईश्वरीय रचना - कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है युवक। संध्या समय वह नदी के तट पर घंटो बैठा रहता है। क्षितिज की ओर बढ़ते जाने वाले रक्त -रश्मि सूर्येदेव को आकृष्ट नेत्रों से देखता रह जाता है। उस पार से आती हुई संगीत - लहरी के मन्द प्रवाह में तल्लीन हो जाता है। विचित्र है उसका जीवन। अद्भुत है उसका साहस। अमोघ है उसका उत्साह। वह इक्षा करे तो समाज और जाति को उत्थान कर दे, देश की लाली रख ले, बड़े - बड़े साम्राज्य उलट डाले। वह इस विशाल विश्व रंगस्थल का सिद्धहस्त खिलाड़ी है। आज के युवक ही कल के देश के भाग्य -निर्माता हैं। वे ही भविष्य के सफलता के बीज हैं। 
#शहीद भगत सिंह के पुण्यतिथि पर उन्हे कोटि - कोटि नमन 🙏

Saturday, 2 May 2020

हिंदू -संस्कृतिका स्वरुप

                     परलोकवाद 

बहुत - से आदमी यह शङ्का करते हैं 'मरनेके बाद आत्मा रहता है या नहीं, किये हुए कर्मोंका फल कर्ताको परलोकमें मिलता है या नहीं, मृत व्यक्तिके लिये दिया हुआ पदार्थ उसे मिलता है या नहीं और जो मृत व्यक्ति मुक्त हो गया है, उसके प्रति दिया हुआ पदार्थ किसको मिलता है  ?' इन प्रश्नोंका यह है कि 
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१- गीतामें कहा है --------
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वोरोऽपि सन्। 
प्रकृतिं     स्वामधिष्ठाय     संभवाम्यात्ममायया ।।
यदा  यदा  हि   धर्मस्य    ग्लानिर्भवति  भारत  ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य  तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्  ।।
परित्राणाय  साधूनां  विनाशाय  च  दुष्कृताम्  ।
धर्मसंस्थापनार्थाय      संभवामि    युगे  युगे    ।।
                                               (४।६-८)
'मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरुप  होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतितो अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ। हे भारत !  जब - जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब -तब ही मैं अपने रुपको रचता हूँ अर्थात्  साकाररूपसे लोगोंके सम्मुख प्रकट होता हूँ। श्रेष्ठ पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता है।' 
२- भागवतमें भगवान् श्रीकृष्ण देवकीसे कहते हैं ------
अदृष्टवान्यतमं लोके शीलौदार्यगुणैः समम्  ।
अहं   सुतो   वामभवं पृश्रीगर्भ  इति  श्रुतः   ।।
तयोर्वां    पुनरेवाहमदित्यामास  कश्यपात्   ।
उपेंद्र  इति  विख्यातो  वामनत्वाच्च वामनः  ।।तृतीयेऽस्मिन् भवेऽहं वै तेनैव वयुषाथ वाम्  ।
जातो भूयस्तयोरेव सत्य मे व्याहृतं  सति     ।।
                                             (१०।३।४१।४३)

'संसारमें शील, उदारता आदि सदगुणोंमें अपने सदृश दूसरेको न देखकर मैं स्वयं ही आप दोनोंका पुत्र होकर पहले 'पृश्रीगर्भ' के नामसे विख्यात हुआ था। उसके बाद जब आप दोनों उस समय मेरा शरीर छोटा होनैके कारण मेरा दूसरा नाम 'वामन' हुआ था। इस तीसरे अवतारमें अब मैं ही उसी शरीरसे आप दोनोंके यहाँ पुनः उत्पन्न हुआ हूँ। हे सती ! मैंने यह आपसे सत्य कहा है।' मरनेपर आत्मा अवश्य रहता है तथा किये हुए कर्मोंका फल कर्ताको अवश्यमे मिलता है। वह इस लोकमें भी मिल जाता है और शेष बचा हुआ परलोकमें मिलता है। मृत व्यक्तिके लिये जो कुछ दिया जाता है, वह सब उसे प्राप्त होता है•, किंतु जो मृत व्यक्ति मुक्त हो गया है, उसके प्रति दिया हुआ कर्ताके संचित कर्मरुप कोषमें जमा होता है। 
(क)  कठोपनिषद् में यमराजके प्रति नचिकेताने भी यही प्रश्न किया था कि मरनेपर आत्मा रहता है या नहीं ? यमराजने यही उत्तर दिया कि अवश्य रहता है। 
       यमराज कहते हैं -------
                न साम्परायः प्रतिभाति    बालं 
                      प्रमाद्यन्तं  वित्तमोहेन मूढम्। 
         अयं लोको  नास्ति  पर  इति मानी 
               पुनः        पुनर्वशमापद्यते       मे।। 
                                            (कठ० १ । २ ।६)
'जो धनके मोहसे मोहित हो रहा है ऐसे प्रमादी मूढ़, अविवेकी पुरुषको परलोकमें श्रद्धा नहीं होती। यह लोक ही है, परलोक नहीं है ------इस प्रकार माननेवाला वह मूढ़ मुझ मृत्युके वशमें बार -बार पड़ता है अर्थात् पुनः -पुनः  जन्म-मृत्युको प्राप्त होता है। '
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्। 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न  हन्यते हन्यमाने  शरीरे।। 
                                                  (कठ० १।२।१८)
'नित्य ज्ञानस्वरुप आत्मा न तो जन्मता है और न मरता ही है। यह न तो स्वयं किसीसे हुआ है, न इससे कोई भी हुआ है। अर्थात् यह न तो किसीका कार्य है और न कारण ही है। शरीरके नाश होनेपर भी इसका नाश नहीं होता।' 
गीतामें भी भगवान् कहते हैं -----
न त्वेवाहं  जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। 
न चैव न भविष्यामः  सर्वे  वयमतः परम्    ।।
'न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमेें नहीं था याा तूू नहीं  था अथवा ये राजालोग नहीं थेे और न ऐसा ही है कि इससे आगेे हम सब नहीं रहेेंगे।' 
वाल्मीकीय रामायणमें युद्धके बाद दशरथजीका आना तथा श्रीराम और लक्ष्मण आदिसे वार्तालाप करना परलोकका जीता-जागता प्रमाण है, इसके लिये वाल्मीकीय रामायण युद्धकाण्ड, १२१वाँ सर्ग देखिये। 
अन्यान्य शास्त्रोंमें भी जगह -जगह इसके अनेक प्रमाण प्राप्त होते हैं। 
हिंदू -जातिके हृदयमें यह संस्कार स्वभाविक ही अङ्कित है। यह युक्तिसंगत भी है। जब मनुष्य जन्मता है, तब उसके जाति, आयु, भोग और स्वभाव भिन्न -भिन्न होते हैं तथा मनुष्यका जन्मते ही रोना, हँसना, कम्पित होना, सोना, माताके स्तनोंसे स्वयं ही दूधको आकर्षित करना आदि उसके पुर्नजन्मके अभ्यासके द्योतक होनेसे पूर्वजन्मको सिद्ध करते हैं। इसलिये आत्मा नित्य है। शरीरके नाश होनेपर भी उसका नाश नहीं होता। 
गीतामें भी कहा है ------
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। 
                                               (२।२०)
'यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला है •,
 क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।'
(ख) श्रीरामचरितमानसमें दशरथजीने कहा है -------
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। 
ईस   देइ   फलु   हृदयँ   बिचारी ।।
करइ  जो  करम  पाव  फल सोई।
निगम  नीति अस कह सबु कोई ।।
वाल्मीकीय रामायणमें कहा है ------
अवश्यमेव  लभते  फलं  पापस्य कर्मणः।  
भर्तः पर्यागते काले कर्ता नास्तयत्र संशयः।। 
शुभकृच्छुभमाप्नोति   पापकृत्   पापमश्रुते।
                                (युद्ध। १११।२५-२६)
'स्वामिन् ! इसमें संदेह नहीं कि समय आनेपर कर्ताको उसके पाप-कर्मका फल अवश्य ही मिलता है। शुभ कर्म करनेवालेको उत्तम फलकी प्राप्ति होती है और पापीको पापका फल दुःख भोगना पड़ता है।'
मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे उसका वैसा ही फल प्राप्त होता है -----
यह बात गीता आदि शास्त्रोंमें भलीभाँति बतलायी गयी है। * 
     यह युक्तियुक्त भी है। मनुष्य जैसे कर्म करता है, उसके अनुसार ही उसके हृदयमें संस्कार जमते हैं। फिर उनके अनुसार ही उसके अन्तःकरणकी वृत्ति बनती है। 
वृत्तिके अनुसार ही अन्तकालमें स्मृति होती है और स्मृतिके अनुसार ही भावी जन्म होता है। इन कर्मोंकि भेदके कारण ही मनुष्यके जाति, आयु, भोग और स्वभाव और भोगकी भिन्नता होती है। अर्थात् सब प्राणियोंमें जो बुद्धि, स्वभाव और भोगकी भिन्नता देखी जाती है, इसका मूल कारण कर्म ही है। 
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गीता कहती है --------
पुरुषः प्रकृतिस्थो  हि  भुङक्ते  प्रकृतिजान् गुणान्। 
कारणं          गुणसङ्गोऽस्य     सदसद्योनिजन्मसु ।।
                                                         (१३।२९)
'प्रकृतिमें स्थित ही पुरुष प्रकृतिसे उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थोंको भोगता है और इन गुणोंका सङ्ग ही इस जीवात्माके अच्छी -बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है।'
कर्मणः  सुकृतस्याहुः  सात्विकं निर्मलं फलम्। 
रजसस्तु  फलं   दुःखमज्ञानं   तमसः   फलम् ।।
                                                     (१४।१६)
'श्रेष्ठ कर्मका तो सात्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है। राजस कर्मका फल दुःख एवं तामस कर्मका फल अज्ञान कहा है।'
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्। 
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।। 
'कर्मफलका त्याग न करनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ ------ऐसे तीन प्रकारका फल मरनेके पश्चात् अवश्य होता है, किंतु कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका फल किसी कालमें भी नहीं होता।'
अतः कर्मफल प्राप्त होनेकी बात बिलकुल युक्तिसंगत है और प्रत्यक्ष देखनेमें भी आति है। 
(ग)  श्राद्ध -तर्पणका उल्लेख रामायणमें स्थान -स्थानपर आया है। श्रीरामचरितमानसमें महाराज दशरथकी मृत्यु होनेपर भरतके द्वारा उनकी यथोचित ऊर्ध्वक्रिया करनेका उल्लेख मिलता है। यथा -------
नृप   तनु   बेद  बिदित  अन्हवावा। 
परम   बिचित्र   बिमानु     बनावा ।।
चंदन   अगर   भार   बहु   त्रआए ।
अमित   अनेक   सुगंध    सुहाऐ   ।।
सरजु   तीर   रचि    चिता   बनाई ।
जनु     सुरपुर     सोपान    सुहाई  ।।                       एहि बिधी दाह क्रिया सब कीन्हि ।
बिधिवत  न्हाइ  तिलांजलि  दीन्ही ।।
सोधि   सुमृति   सब   बेद   पुराना ।
कीन्ह   भरत    दसगात   बिधाना  ।।
जहँ  जस  मुनिबर आयसु  दीन्हा   ।
तहँ तस सहस  भाँति सबु कीन्हा    ।।
भए    बिसुद्ध     दिए  सब  दाना    ।
धेनु   बाजि    गज     बाहन नाना   ।।
श्रीरामचंद्रजी महाराजने भी पिताकी मृत्युका संवाद सुनते ही मन्दाकिनी -तीरपर जाकर तर्पण किया एवं स्वयं जैसा भोजन किया करते थे, उसीके पिण्ड बनाकर 
दशरथजीके निमित्त दिये --------
ततो मन्दाकिनीं गत्वा स्नात्वा ते वीतकल्मषाः।। 
राज्ञे   ददुर्जलं  तत्र  सर्वे   ते     जलकांक्षिणे   ।
पिण्डन्  निर्वापयामास  रामो  लक्ष्मणसंयुतः   ।।
इङ्गदीफलपिण्याकरचितान्     मधुसम्पलुतान्। 
वयं     यदन्नाः    पितरस्तदन्नाः   स्मृतिनोदिता 
                       (अध्यात्म० अयोध्या० १।१७----१२)
'फिर सब लोग मन्दाकिनीपर जाकर स्नान करके पवित्र हुए। वहाँ उन सबने जलाकांक्षी महाराज दशरथको जलाञ्जलि दी तथा लक्ष्मणजीके सहित श्रीरामचंद्रजीने पिण्ड दिये। जो हमारा अन्न है, वही हमारे पितरोंको प्रिय होगा ------यही स्मृतिकी आज्ञा है, यों कह उन्होंने इंगुदी -फलकी पीठीके पिण्ड बना उनपर मधु डालकर उन्हें प्रदान किया।'
वाल्मीकीय रामायणमें भी इसी भावके द्योतक श्लोक मिलते हैं। रामायणके सिवा श्राद्दका प्रकरण गीता १,मनुस्मृति२ आदि सभी शास्त्रोंमें पाया जाता है। 
यह बात युक्तिसंगत भी है। जो आदमी जिस व्यक्तिके नामसे बैंकमें रुपये जमा करता है, उसी व्यक्तिके नाम रुपये जमा हो जाते हैं और जिसके नामसे जमा होते हैं, उसीको मिलते हैं, दूसरेको नहीं। उन रपयोंके बदलेमें उसे जो आवश्यकता होती है, वही चीज उतनी कीमतकी मिल जाती है। इसी प्रकार पितरोंको नामसे किया हुआ पिण्ड, तर्पण, ब्राह्मणभोजन आदि कर्मका जितना मूल्य आँका जाता है, उतना ही फल उस प्राणीको वह जिस योनिमें होता है वहीं आवश्यकतानुसार प्राप्त हो जाता है अर्थात् यदि वह प्राणी गाय है तो उसे चारेके रुपमें, देवता है तो अमृतके रुपमें, मनुष्य है तो अन्नके रुपमें और बंदर आदि है तो फल आदिके रुपमें ही मुल्यकी वस्तु मिल जाती है। 
यदि कहें कि जीवित व्यक्तिके लिये भी कोई यज्ञ, दान, अनुष्ठान, व्रत, उपवास आदि कर्म करता है तो क्या वह उसे भी मिलता है, 
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१.गीतामें कहा है ------
संकरो  नरकायैव  कुलन्घानां   कुलस्य    च। 
पतन्ति  पितरो  ह्योषां  लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।। 
                                         (१ । ४२)
'वर्णसंकर कुलघातियोंको और कुलको नरकमें ले जानेके लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जलकी क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित इनके पितरलोग भी अधोगतिको प्राप्त होते हैं।'
२. मनुजी कहते हैं ------
यद्यद्   ददाति   विधिवत्  सम्यक्  श्रद्धासमन्वितः। 
तत्तत्      पितृणां  भवति         परत्रानन्तमक्षयम् ।।
'मनुष्य श्रद्दावान्  होकर  जो -जो पदार्थ अच्छी तरह विधिपूर्वक पितरोंको देता है, वह -वह परलोकमें पितरोंको अनन्त और अक्षयरुपमें प्राप्त होता है।'
तो इसका उत्तर यह है कि अवश्य उसे मिलता है। नहीं तो, फिर यजमानके लिये जो ब्राह्मण यज्ञ, तप अनुष्ठान, पूजा, पाठ, आदि करता है, वह किसको मिलेगा ? 
न्यायतः वह यजमानको ही मिलेगा, कर्म कर्ताको ही मिलता है। जैसे किसी आदमीको रजिस्ट्री चिट्ठी या बीमा भेजी जाती है और जिसको भेजी जाय, वह आदमी मर गया हो तो फिर वह लौटकर भेजनेवालेको ही वापस मिल जाती है, उसी प्रकार इस इस विषयमें भी समझना चाहिये। 
                    ये सब संस्कार हिंदुओंके रग -रगमें भरे हुए हैं।  इन्हींको लेकर प्रायः सभी हिंदू सदासे श्राद्ध -तर्पण आदि करते आ रहे हैं। यह है हिंदु -संस्कृति !'मनुष्यकी उत्पत्तिके समयमें जो क्लेश माता -पिता सहते हैं, उसका बदला सैकड़ों वर्षोंमें भी सेवादि करके नहीं चुकाया जा सकता।' Pampamsinghchauhan
       
     


Friday, 1 May 2020

हिंदू -संस्कृतिका स्वरुप

* जिस वस्तुसे जो चीज बनती है, वह उसका उपादान -कारण है और बनानेवाला निमित्तकारण ---
जैसे घड़ेका उपादानकारण मिट्टी है और निमित्तकारण कुम्हार है। किंतु संसारके उपादान और निमित्तकारण परमात्मा ही हैं। जैसे मकड़ी जाला तानती है, तो उस जालेका उपादान कारण भी मकड़ी है और निमित्तकारण भी मकड़ी ही है, उसी प्रकार परमात्मा जगत् के उपादान और निमित्तकारण दोनों हैं और वे उससे अभिन्न हैं। 
एकमात्र परमात्मा है।  जो इस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाला तथा पाप -पुण्यके अनुसार फलदाता और सबको नियममें रखकर यथायोग्य संचालन करनेवाला है, वही ईश्वर है। संसारमें बड़े -बड़े यन्त्र और कारखाने हैं•, किंतु बिना किसी बुद्धिमान् चेतन संचालकके उनका चलना सम्भव नहीं, बल्कि बिना उसके वे नष्ट - भ्रष्ट हो जाते हैं। 
             आपकी दृष्टिमें जो कुछ देखने - सुननेमें आता है, वह सब जिससे संचालित है, वह ईश्वर है। वह है चेतन •, क्योंकि जो जड प्रकृत (नेचर) है, उसमें ज्ञान न होनेके कारण वह न तो सबको यथायोग्य स्थानमें स्थापित ही कर सकती है और न उसका संचालन ही कर सकती है•,
किंतु इस संसारके पिछे जो शक्ति है, उसका कार्य देखनेसे मालूम होता है कि वह बहुत विलक्षण अतिशय ज्ञानमयी शक्ति है। जिससे समस्त संसारका संचालन नियमानुसार हो रहा है, उसकी इस विलक्षण कुशलताको तो देखिये। ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म -से -सूक्ष्म प्राणी होते हैं, जो सूक्ष्मतासे देखनेसे कागजोंपर भी कभी - कभी लक्ष्यमें आते हैं। वे सफेद, लाल आदि अनेक रंगोंके होते हैं। और पोस्ताके दानेकी अपेक्षा भी सूक्ष्म होते हैं। उन्हें कोई 'पोस्तिया जानवर' भी कहते हैं। उनके इतने सूक्ष्म शरीरमें भी सब यन्त्र होते हैं। चलनेके लिये पैर और उड़नेके लिये पँखें तो रहती ही हैं•, मन, बुद्धि, भी होती हैं। इनके अलावा शरीरके भीतरके बहुत -से यन्त्र भी उसी जन्तुके अंदर होते हैं। उनमें सूक्ष्म जीव होते हैं,जो देखनेमें भी नहीं आते। अब विचारिये, उसका निर्माता कितना बुद्धिकुशल होना चाहिये। यह काम जड प्रकृतिसे सम्भव नहीं। 
मनुष्योंकी प्रकृति, बुद्धि, इन्द्रियाँ भिन्न -भिन्न होनेसे उनके आचरण भी भिन्न - भिन्न होते हैं। ऐसे उन विभिन्न मनुष्योंके पुण्य -पापरुप आचरणोंके अनुसार यथायोग्य सुख -दुःखादिका भुगताना भी जड प्रकृतिका काम नहीं हो सकता। अतः उसका फलदाता भी कोई बुद्धिका महान्  सागर चेतन ही होना चाहिये और वह है एकमात्र परमात्मा। 
देखिये, संसारमें ऐसा कोई भी यन्त्र देखनेमें नहीं आता जिसका काम बिना सँभालके चल सके। उदाहरणार्थ कपड़ेकी या गंजीकी कल है,° यदि  उसका संचालक कोई चेतन पुरुष नहीं होगा तो न कपड़ा ही तैयार होगा और न गंजी ही,° क्योंकि तार टूटनेपर संचालकके बिना उसे कौन जोडे़गा। बल्कि यन्त्र ही नष्ट हो जायेगा। बड़े -से बड़ा यन्त्र रेलगाड़ी है। उसके इंजन, पटरी आदिकी सार -सँभाल-मरम्मत आदि नहीं होगी तो उसका चलना सम्भव नहीं। किसी बुद्धिशाली चेतन संचालक, संयोजकके बिना एक दिन भी काम नहीं चलेगा और सब नष्ट-भ्रष्ट हो सकता है। इसी प्रकार यह सारा जगच्चक्र चल रहा है। यदि इसका निर्माता, संयोजक, संचालक तथा सँभाल -मरम्मत करनेवाला कोई बुद्धिशाली चेतन न हो तो इसकी भी वही दशा होगी। 
       हम, आप कोई प्राणी अपनी सत्तामें संदेह नहीं करते। हम हैं, साथ ही हम चेतन हैं,° किंतु ज्ञानके लिये इच्छुक भी हैं। हमको और अधिक ज्ञान मिले, इस प्रयत्नमें रहते हैं,° सभी ज्ञानके साथ सुख चाहते हैं और किसी -न -किसीको अपनेसे अधिक सुखी मानते हैं। इस प्रकार सत्ता, ज्ञान और सुख----- सत्, चित, आनन्दको हम मानते तो हैं और यह भी देखते हैं कि जीवोंमें ज्ञान और आनन्द कहीं पूर्ण नहीं, सब उसको पानेके ही स्रयत्नमें हैं। जिसे सभी विद्वान् पाना चाहते हैं, वह नहीं है ------ऐसा सम्भव नहीं। अतः जहाँ सत्ता, ज्ञान और आनन्द तीनों पूर्णरुपसे हैं, वही तो सच्चिदानन्द ईश्वर है। जडमें तो केवल सत्ता ही प्रत्यक्ष प्रतीत होती है, चेतनता और आनन्द नहीं और सबसे छोटे प्राणी जो दूरबीनसे भी कठिनतासे दीखते हैं, उनमें भी सत्ताके साथ ज्ञान रहता है। वे अपने आहारको पहचानतेसे दीखते हैं, उनमें भी सत्ता के साथ ज्ञान रहता है। वेअपने आहारको पहचानते हैं, वे भी सुख चाहते हैं,° क्योंकि शत्रुसे डरकर भागते उन्हें भी देखा गया है। यह चेतना, ज्ञान और सुखकी इच्छा जब जडमें नहीं है, तब कहीं माननी पडे़गी। जहाँ वह है, वहीं परमात्मा है। वह चेतन ही इस जडका संचालक है। वही सर्वेश्वर है। 
   इससे यही निर्णय हुआ कि इसका उत्पादक, निर्माता, संचालक, रक्षक------जो कोई है, वही चेतन परमात्मा है। यह हिंदुओंकी अनुभवयुक्त मान्यता सदासे चली आ रही है -----इसीको 'हिंदू -संस्कृति' कहते हैं। 
                         अवतारवाद 
भगवान्  श्रीराम, श्रीकृष्ण,साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा हैं, यह विश्वास हिंदू -जातियोंमें प्रायः सदासे ही चला आ रहा है। यह युक्तियुक्त और उचित ही है। निर्गुण -निराकाररुप सच्चिदाननकदघन परमात्मा ही सगुण -साकाररुपमें प्रकट होते हैं, जैसे आकाशमें परमाणुरुपसे स्थित जल ही बादलके रुपमें आकार फिर जल और बर्फके रुपमें प्रकट होकर बरसने लगता है। सर्गके आदीमें सारे पदार्थ भी निराकारसे साकार बनते हैं ------
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्तयहरागमे। 
                                              (गीता ८। १८)
उस निराकाररुपब्रहह्माके सूक्ष्म शरीरसे ही सारी स्थूल व्यक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार वह सच्चिदाननकदघन परमात्मा स्वयं ही निराकार -रुपसे साकार -रुपको धारण करता है। इसीका नाम अवतार लेना है। तुलसीकृत रामायणमें अवतारवाद स्थान -स्थानपर भरा हुआ है । यहाँ संक्षेपसे कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है। 
बालकाण्डमें श्रीशिवजी पार्वतीसे  कहते हैं -----
जब  जब  होई  धरम  कै हानि।  
बाढहिं असुर अधम अभिमानी।। 
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी।                      सीदहिं बिप्र धेनु सुर धेनु सुर धरनी।। 
तब  तब  प्रभु धरि बिबिध सरीरा। 
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।। 
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु। 
जग  बिस्तारहिं  बिसद जस  राम जन्   कर हेतु ।।
वाल्मीकीय रामायणमें लिखा है कि जब देवता और ऋषियोंने रावणके उपद्रवोंसे दुःखित हो ब्रह्माजीसे प्रार्थना की, तब ब्रह्माजी उन्हें सान्त्वना देने लगे। उसी समय भगवान् श्रीविष्णुके प्रकट होनेका वर्णन इस प्रकार आया है ------
एतस्मिन्नन्तरे      विष्णुरुपयातो   महाद्युतिः। 
शङ्खचक्रगदापाणिः  पीतवासा  जगत्पतिः।। 
वैनतेयं  समारुह्य  भास्करस्तोयदं   यथा     ।
तप्तहाटककेयूरो   वन्धमानः      सुरोत्तमैः    ।।
                                       (वा० रा०, १५।१६-१७)
'उसी समय महान्  तेजस्वी जगत्पति भगवान् विष्णु मेघपर आरुढ़ हुए -से सूर्यके समान गरुड़पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे। उनके शरीरपर पीताम्बर, हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा आदि आयुध एवं भुजाओंमें चमकीले स्वर्णके बाजूबंद शोभा पा रहे थे। सभी श्रेष्ठ देवताओंने उनको प्रणाम किया।'
भगवान् ने देवताओंकी प्रार्थनापर दशरथजीके घरमें मनुष्य -रुपसे अवतार लेना स्वीकार कर लिया ------
सत्ता क्रुरं  दुराधर्षं देवर्षीणां  भयावहता। 
दशवर्षसहस्त्राणि  दशवर्षशतानि     च।। 
वत्सयामि मानुषे लोके पालयन् पृथिवीमिमाम्। 
                               (वा० रा०, बाल० १५।२१-३०)
'देवता और ऋषियोंके भय देनेवाले उस क्रुर एवं दुर्धर्ष राक्षसका नाश करके मैं ग्यारह सहस्त्र वर्षोंतक इस पृथ्वीका पालन करता हुआ मनुष्यलोकमें निवास करुँगा। '
अध्यात्मरामायणमें कथा आति है ------ जब विश्वामित्रजी श्रीराम-लक्ष्मणको यज्ञरक्षार्थ ले जानेके लिये आये, उस समय दशरथजीके द्वारा सलाहके रुपमें पूछे जानेपर वसिष्ठजीने कहा ------
शृणु  राजन्   देवगुह्यां  गोपनीयं  प्रयत्नतः। 
रामो  न  मानुषो जातः परमात्मा सनातनः।। 
भूमेर्भारावताराय  ब्रह्मणा  प्रार्थितः   पुरा  ।
स एव  जातो  भवने  कौसल्लायां तवानघ ।।
                                 (अध्यात्म०, बाल० ४।१२-१३) 
'राजन् ! यह देवताओंकी गुह्य लीला सुनो, इसे किसी प्रकार प्रकट न होने देना चाहिये। ये राम मनुष्य नहीं हैं, साक्षात्  सनातन परमात्मा ही (अपनी मायासे)  इस  रुपमें प्रकट हुए हैं। अनघ !  पूर्वकालमें पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर उसे पूर्ण करनेके लिये उन परमेश्वरने ही तुम्हारे यहाँ कौसल्याके गर्भ से जन्म लिया है। '
चित्रकुटमें माता कैकेयीने श्रीरामसे क्षमा -प्रार्थना करते हुए कहा है --------

त्वं साक्षाद्  विष्णुरव्यक्तः परमात्मा सनातनः। 
मायामानुषरुपेण  मोहयस्यखिलं        जगत् ।।
                              (अध्यात्म०  अयोध्या ०   ९।५६)
'आप साक्षात्  विष्णु  भगवान्,  अव्यक्त परमात्मा और सनातन पुरुष हैं। अपने लीलामय मनुष्यरुपसे आप समस्त संसारको मोहित कर रहे हैं। '
रावणवधके अनन्तर ब्रह्मादि देवताओंसे बातचीत करते हुए श्रीरामने कहा कि 'मैं तो अपनेको दशरथपुत्र राम ही समझता हूँ। वास्तवमें मैं जो हूँ, जैसा हूँ आप ही बतलाइये। '  इसपर ब्रह्माजी श्रीरामका महत्व बतलाते हुए कहते हैं --------
भवान्   नारायणो   देवः  श्रीमांश्चक्रायुधः। 
.........................................................

सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः  कृष्णः प्रजापतिः।। 
...............................................................
वधार्थं   रावणस्येह   प्रविष्टो   मानुषीं     तनुम्  ।।
                          (वा० स,० युद्ध ० ११७। १३,२७,२८)
'आप साक्षात् चक्रपाणि लक्ष्मीपति प्रभु श्रीनारायणदेव हैं। सीता साक्षात्  लक्ष्मी हैं, और आप भगवान् विष्णु, कृष्ण * एवं प्रजापति हैं। आपने रावणवधके लिये ही 
  इस मनुष्यलोकमें मानवशरीर धारण किया है। भगवान् के परमधाम पधारनेके प्रकरणसे यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि श्रीराम साक्षात् पूर्णब्रह्म परमेश्वर थे। उस समय ब्रह्माजीके कथनानुसार भगवान् ने अपने भाइयोंके साथ इस मानवविग्रहसे ही उस वैष्णवतेजमें प्रवेश किया ----
विवेश वैष्णवं तेजः सशरीरः सहानुजः। 
                                (वा० रा०, उत्तर ० ११०। १२)
* यहाँ 'कृष्ण' नाम आया है, इससे सिद्ध होता है कि परमात्माका यह नाम अनादिकालसे प्रसिद्ध है,  कृष्ण -अवतार लेनेके कारणसे नहीं। 
इसी प्रकार गीता१, भागवत२ आदि ग्रन्थोंमें भी अवतारवादका उल्लेख स्थान -स्थानपर मिलता है। इसके संस्कार प्रायः हिंदुओंके हृदयमें स्वाभाविक ही अङ्कित हैं। यह है हिंदू -संस्कृति! Pampamsinghchauhan
          



Thursday, 30 April 2020

हिंदू -संस्कृतिका स्वरुप

श्रीतुलसीदासजी कहते हैं ••••
यन्मायावशवर्ति  विश्वमखिलं    ब्रह्मादिदेवासुरा 
यत्सत्वादमृषैव  भाति  सकलं  रज्जौ यथाहेभ्रमः। 
यत्पादप्लवमेकमेव  हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां ।।
वन्देऽहं  तमशेषकारणपरं  रामाख्यमीशं   हरिम् ।।
'जिनकी  मायाके  वशीभूत  सम्पूर्ण  विश्व,  ब्रह्मादि  देेेेेवता और  असुर  हैं,  
जिनकी  सत्तासे  रस्सीमें  सर्पके  भ्रमकी  भाँति  यह  सारा  दृश्य  जगत्  सत्य  ही  प्रतीत  होता  है  और  जिनके  श्रीचरण  ही  भवसागरसे  तरनेकी  इच्छावालोंके  लिये  एकमात्र  नौका  हैं,  उन  समस्त   कारणोंसे  परे  (सब कारणोंके कारण और सबसे श्रेष्ठ)  राम  कहानेवाले भगवान्  श्रीहरिकी  मैं  वन्दना  करता  हूँ।' 

   तथा अरण्यकाण्डमें  श्रीलक्ष्मणजीके  पूछनेपर  भगवान्  स्वयं कहते हैं ••••
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ईश्वरः       सर्वभूतानां      हृद्देशेऽर्जुन      तिष्ठति। 
भ्रामयन्    सर्वभूतानि      यन्त्रारुढानि    मायया।। 
                                                   (१८ । ६२)
'अर्जुन  !  शरीररुप  यन्तमें  आरुढ़  हुए  सम्पूर्ण  प्राणियोंको  अन्तर्यामी  परमेश्वर  अपनी  मायासे  उनके  कर्मोंकि  अनुसार  भ्रमण  करता  हुआ  सब  प्राणियोंके  हृदयमें  स्थित  है।'
७. श्रीभागवतकार कहते हैं ••••
      जन्माद्यस्य  यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
     तेने  ब्रह्म   हृदा   य   आदिकवये  मुह्यान्ति युत्सूरयः।    तेजोवखरिमृदां  यथा  विनिमयो  यत्र    त्रिसर्गोऽमृषा 
   धाम्ना  स्वेन  सदा  निरस्तकुहं  सत्यं  परं     धीमहि ।।
                                                     (१ । १ । १)
'जिससे इस जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार होता है, जो अन्वय और व्यतिरेक ••••दोनों प्रकारसे सत्य है अर्थात् जिसकी सत्तासे ही जगत् की सत्ता है, परन्तु जगत् के न रहनेपर भी जिसका अस्तित्व अक्षुण्ण रहता है, जो जगत् के सम्पूर्ण पदार्थोंमें व्याप्त और सर्वज्ञ है तथा अखण्ड, अबाध, ज्ञानसम्पन्न होनेके कारण जो स्वयंप्रकाश है, जिसके सम्बन्धमें बड़े - बड़े  ऋषि -मुनि  मोहित हो जाते हैं,• जिसके सत्य - स्वरुपमें यह त्रिगुणमयी सृष्टि उसकी सत्तासे सत्य है, परन्तु भिन्न - भिन्न नामरुपोंकी  दृष्टिसे  असत्य भी है •••• जैसे तेजोमय सूर्यकी किरणोंसे काँच आदि मृत्तिकाके विकारोंमें जलकी और जलमें स्थलकी भ्रान्ति हो जाया करती है, जिसके अपने ज्ञानमय प्रकाशसे 
माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव। 
बंध  मोच्छ  प्रद  सर्बपर  माया   प्रेरक  सीव।। 
'जो  मायाको, ईश्वरको और अपने स्वरूपको नहीं जानता, वह जीव है•, और जो कर्मानुसार बन्धन और मोक्ष देनेवाला, सबसे परे, माया प्रेरक और कल्याणमय है, वह ईश्वर है।' 
जो ईश्वरको नहीं माननेवाले नास्तिक हैं, उन्होंने अनेक प्रकारके झूठे तर्क-वितर्क करके बहुत -से अनजान लोगोंको मोहित कर दिया है, जिससे वे बेचारे भोले -भाले  लोग भ्रममें पड़कर ईश्वरके सम्बन्धमें भी अनेक प्रकारके शङ्का-समाधान करने लगे। इससे हमारी हिंदू-संस्कृतिटका ह्लास होने लगा, जो हिंदुस्तानके पतनमें बहुत बड़ा कारण सिद्ध हुआ।  ईश्वरको माननेमें लाभ और न माननेमें अनेक हानियाँ प्रत्यक्ष ही हैं।
 ईश्वरको माननेवाला मनुष्य ईश्वरके भयसे पाप नहीं  करता और ईश्वरपर निर्भर हो जाता है, जिससे उसके हृदयमें निर्भयता, धीरता, वीरता, गम्भीरता आदि अनेक गुण आ जाते हैं। ईश्वरके चिन्तनसे अनायास ही सारे दुर्गुण - दुराचारोंका नाश होकर उसमें पूर्णतया सदगुण - सदाचार आ जाते हैं तथा परम शान्ति और परम आनन्दकी प्राप्ति होकर मरने पर उत्तम गति मिलती है। 
ईश्वरको न माननेवाले नास्तिकके हृदयमें दुर्गुण - दुराचार घर कर लेते हैं। उसे ईश्वरका तो भय रहता नहीं, फिर वह क्यों पाप करनेसे रुकेगा ? उसे पापोंके फलस्वरूप  दुःखोंकी प्राप्ति होने पर चिन्ता, शोक, भय प्राप्त होते हैं और मरनेपर उसकी बड़ी दुर्गति होती है। तर्कसे भी यह बात सिद्ध है। आप कहते हैं, 'ईश्वर नहीं है' और मैं कहता हूँ 'ईश्वर है' थोड़ी देर के लिए मान लीजीये, आपकी बात ही सत्य हो, तो ऐसी परिस्थितिमें यदि ईश्वर नहीं है और मैंने भूलसे ईश्वरको मान लिया तो इससे मुझे क्या हानी होगी ? आपकी मान्यताके अनुसार वास्तवमें ईश्वर है ही नहीं, तो चाहे जितना ही उसकी प्राप्तिके लिए प्रयत्न किया जाय, न वह आपको मिलेगा न मुझे ही। यह तो हो ही नहीं सकता कि मुझे ईश्वर न मिले और आपको मिल जाय,• जब ईश्वर है ही नहीं, तब मिलेगा क्या ? हमने जो भूलसे ईश्वरको मान लिया, उसके फलस्वरूप हमें कोई दण्ड तो होना ही नहीं है। फलतः आप और हम दोनों समान कक्षामें ही रहेंगे। परन्तु थोड़ी देरके लिये मान लें यदि हमारी मान्यता सत्य हो गयी, ईश्वरका वास्तवमें होना प्रमाणित होना प्रमाणित हो गया तो इसके फलस्वरूप यदि हमने शास्त्रानुसार साधन किया तो हमें तो ईश्वरकी प्राप्ति होकर परम शान्ति और परमानन्दकि प्राप्ति हो जायगी और आप इन सबसे वङ्चित रहेंगे। इतना ही नहीं, इसके फलस्वरूप आपको घोर नरकोंकी प्राप्ति होगी और भारी दुःखोंका सामना करना पड़ेगा। इस तर्कके अनुसार भी ईश्वरको मानना ही सब प्रकारसे श्रेयस्कर है। 
अन्य युक्तियोंसे भी ईश्वरका होना सिद्ध है। ईश्वरके बिना किसीका भी काम चलना सम्भव नहीं है। आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि सभी ईश्वरके अस्तीत्वको प्रमाणित कर रहे हैं। ये सभी जिससे उत्पन्न हुए हैं और जिससे संचालित हो रहे हैं, वही ईश्वर है,• क्योंकि बिना किसी कारणके कोई कार्य नहीं हो सकता। अतः इस जगत् का भी तो कोई कारण होना चाहिए। यह सारा जगत् जिससे उत्पन्न हुआ है, वही सबका अभिन्न निमित्तोपादन कारण* 
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माया ••••छल -कपट आदि सदा ही निरस्त रहते हैं, उस परम सत्यस्वरुप परमेश्वरका हम ध्यान करते हैं।'
तथा ••••
यथोर्णनाभिहृदयादूर्णां   संतत्य    वक्त्रतः। 
तया  विहृत्य  भूयस्तां   ग्रसत्येवं  महेश्वरः।। 
                                                       (११।९।२१)
'जिस प्रकार  मकडी़ अपने पेटमेंसे मुखद्वारा तन्तुको निकालकर उसको फैलाती है और उसके साथ विहार करके पुनः निगल जाती है, उसी प्रकार सर्वेश्वर परमात्मा भी (जगत् की रचना करके तथा उसमें विहार करके पुनः अपनेमें उसे लीन कर लेते हैं)।'
*  जिस वस्त्तुसेे जो चीज बनती है, वह उसका उपादान - कारण है और बनानेेेवाला निमित्तकारण ---
जैसे घड़ेका उपादानकारण मिट्टी है और निमित्तकारण कुम्हार है | किंतु संसारके उपादान और निमित्तकारण परमात्मा ही हैं |  जैसे मकड़ी जाला तानती है, तो उस जालेका उपादान कारण भी मकड़ी है और निमित्तकारण भी मकड़ी ही है, उसी प्रकार परमात्मा जगत् के उपादान और निमित्तकारण दोनों हैं और वे उससे अभिन्न हैं |Iampampamsinghchauhan





Monday, 27 April 2020

हिंदू -संस्कृतिका स्वरुप

रामायणमें श्रीरामका आदर्श चरित्र 
श्रीरामचंद्रजीकी सारी ही चेष्टाएँ धर्म, ज्ञान, शिक्षा, गुण, प्रभाव, तत्त्व एवं रहस्यसे भरी हुई हैं | उनका व्यवहार देवता, ऋषि, मुनि, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभीके साथ बहुत ही प्रशंसनीय, अलौकिक और अतुलनीय है | देवता, ऋषि, मुनि और मनुष्योंकी तो बात ही क्या ----जाम्बवान, सुग्रीव,हनुमान् आदि रीछ -वानर,• जटायु आदि पक्षी तथा विभीषण आदि राक्षसोंके साथ भी उनका ऐसा दयापूर्ण, प्रेमयुक्त  और त्यागमय व्यवहार हुआ है कि जिसे स्मरण करनेसे ही रोमान्च हो आता है |भगवान्  श्रीरामकी कोई भी चेष्टा ऐसी नहीं, जो कल्याणकारीणी न हो |
उन्होंने साक्षात्  पूर्णब्रह्म परमात्मा होते हुए भी मित्रोंके साथ मित्रका-सा, माता-पीताके साथ पुत्रका-सा, स्त्रीके साथ पतिका-सा, भाइयों के साथ भाईका-सा, सेवकोंके साथ स्वामीका-सा, मुनि और ब्रह्मणोंके साथ शिष्यका-सा---- इसी प्रकार सबके साथ यथायोग्य त्यागयुक्त प्रेमपूर्ण व्यवहार किया है | अतः उनके प्रत्येक व्यवहारसे हमलोगोंको शिक्षा लेनी चाहिए | 
श्रीरामचंद्रजीकी राज्यका तो कहना ही क्या है, उसकी तो संसारमें एक कहावत हो गयी है | जहाँ कहीं सबसे बढ़कर सुन्दर शासन होता है, वहाँ 'रामराज्य' की उपमा दी जाती है | श्रीरामके राज्यमें प्रायः सभी मनुष्य परस्पर प्रेम करनेवाले तथा नीति, धर्म, सदाचार और ईश्वरकी भक्तिमें तत्पर रहकर अपने -अपने धर्मका पालन करनेवाले थे |प्रायः सभी उदारचरित और परोपकारी थे |वहाँके प्रायः सभी पुरुष एकनारीव्रती और अधिकांश स्त्रियाँ पतिव्रत-धर्मका पालन करनेवाली  थीं | भगवान्  श्रीरामका इतना  प्रभाव था कि उनके राज्यमें मनुष्योंकी तो बात ही क्या, पशु-पक्षी भी प्रायः परस्पर वैर भुलाकर निर्भय विचरा करते थे | भगवान्  श्रीरामके चरित्र बड़े ही प्रभावोत्पादक और अलौकिक थे | यह हमारे आर्य पुरुषोंका स्वाभाविक ही व्यवहार था | इसी आदर्शको हिंदू -संस्कृति कहते हैं | हमें उसी आर्दशको लक्ष्यमें रखकर उसका अनुकरण  करना चाहिए |
       रामायणमें सीताजीका अनुकरणीय चरित्र 
हिंदू -संस्कृतिके अनुसार  पतिके  साथ  पत्नीको कैसा व्यवहार  करना  चाहिए ---- इसकी  शिक्षा  माताएँ  श्रीसीताके  चरित्रसे  ले  सकती  हैं | जगज्जननी  श्रीसीताका  प्रायः  सारा  जीवन  ही  माता -बहिनोंके लिये  आदर्श  और  शिक्षाप्रद  है |
सास-ससुर, माता-पिता, देवरों  सेवकों  तथा  अन्य  सभी  स्त्री-पुरुषोंके  साथ ---- यहाँतक  कि  दुष्टोंके  साथ  भी  कैसा  व्यवहार  करना  चाहिए ----- इसका सुन्दर  उपदेश  हमें  श्रीसीताजीके  जीवनसे  विशेषरुपसे  मिलता है | इसे  किसी  भी  रामायणमें  देख   सकते  हैं |  श्रीसीताजीके  सभी  क्रियाएँ  कल्याणकारिणी  हैं, अतः माता - बहिनोंको सीताजीके  
जीवनमें जो शिक्षाएँ  भरी  हुई  हैं,  उन्हें  अपने  जीवनमें 
उतारनेकी  कोशिश  करनी  चाहिए |

         रामायणमें   भ्रातृ -प्रेम 

हिंदू -संस्कृतिके  अनुसार  भाइयोंके  साथ  कैसा  प्रेमपूर्ण  व्यवहार  होना  चाहिए, इसकी  शिक्षा  हमें  रामायणमें  श्रीराम,  श्रीलक्ष्मण,  श्रीभरत  एवं  श्रीशत्रुघ्नके  चरित्रोंसे  स्थल-स्थलपर  मिलती  है | उनकी  प्रत्येक  क्रियामें  स्वार्थत्याग  और  प्रेमका   भाव 
झलक  रहा  है |  श्रीराम  और  भरतके  स्वार्थत्यागकी  बात  क्या  कही  जाय ------  है  और  भरतकी   श्रीरामके  राज्याभिषेकके  लिए  |  पाठकगण   किसी  भी  रामायणके  अयोध्याकाण्डमें  इस  विषयको  विस्तारपूर्वक  देख  सकते  हैं |  इसी  प्रकार  द्वखपरयुगमें  युद्दिष्ठिर  आदि  पाण्डववोंका परस्पर  भ्रातृ -प्रेम  आदर्श और  अनुकरणीय  है |  यह  है  हिंदू-संस्कृति  !

                    ईश्वरवाद 

 हिंदू -संस्कृतिमें  ईश्वरवाद  एक  प्रधान  स्थान  रखता  है |  ईश्वरको  केवल  हिंदू  ही  नहीं,  ईसाई  और  मुसलमान  आदि  सभी  मानते  हैं |  जिसे  हम  हरि,  ओम,  ईश्वर,  परमात्मा,  नारायण,  राम,  कृष्ण  आदी   अनेक  नामोंसे  कहते  हैं,  उसे  ही  ईसाई,  गॉड  और   मुसलमान  अल्लाह,  खुदा  आदि  नामोंसे  पुकारते  हैं |  जैसे जल,  पानी,  नीर,  अप,  वाटर  आदि   सभी  जलके   ही  नाम  हैं,  उसीके  पर्याय  हैं -----  वस्तुतः  सबका  अर्थ  एक  जल  है ------ उसी प्रकार ये  सभी  नाम  वस्तुतः  एक  ही  ईश्वरके  हैं | 
हमारे  श्रुति,१।  स्मृति, २ दर्शन, ३ इतिहास, ४   पुराण, ५  आदि  शास्त्रोंमें  तो 

१. श्रुति कहती है ------
ईशा  वास्यमिदँ      सर्वं   यत्किञ्च  जगत्यां  जगत्  |
                                                    (यजुर्वेद ४०।१)
'अखिल ब्रह्माण्डमें  जो  कुछ  भी  जड-चेतनस्वरुप  जगत्  है,  वह  समस्त ईश्वरसे व्याप्त है |'
२. मनुजी  कहते  हैं ----
प्रशासितारं                    सर्वेषामणीयांसमणोरपि।    
रुक्माभं          स्वप्नधीगम्यं   विद्यात्  तं  पुरुषं  परम्।। 
एष  सर्वाणि      भूतानि   पञ्चभिव्यारप्य    मूर्तिभिः। 
जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं            संसारयति        चक्रवत् ।।
                                    (मनु० १२। १२२, १२४)

'जो सूक्षमसे  भी  अतिसूक्ष्म  और  सबका  भली   प्रकार  शासश  करनेवाला  है,  उस  परम   पुरुष   परमेश्वरको  जानना  चाहिये।  यही  सम्पूर्ण  प्राणियोंको  पञ्चभूतरुपी  पाँच  मूर्तियोंके  द्वारा  व्याप्त  किये  हुए है  तथा  जन्म, वृद्धि  और  क्षयके  द्वारा निरन्तर समस्त प्राणियोंको चक्रकी भाँति घुमा रहा है।' 
३.  महर्षि  वेदव्यासजी  कहते हैं -----
              जन्माद्यस्य  यतः  ।
                                                  (ब्रह्मसूत्र  १। २)
'इस संसासारकी उत्पत्ति, स्थिति, संहार आदि जिससे होते हैं, वह ईश्वर है।' महर्षि पतञ्चलि  कहते  हैं -----
ईश्वरका  अस्तित्व  पद-पदपर अङ्कित है  तथा  
गीता६, भागवत७, रामायणकी तो  बात ही क्या है ----
ये  तो ईश्वरवादके प्रधान आदर्श  ग्रन्थ हैं  ही। 
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः  पुरुषविशेष   ईश्वरः। 
                                                       (योग०१।२४) 
'क्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश),
कर्म (पाप-पुण्य), कर्मोंकि फल (जाति, आयु, भोग) तथा वासनाओंसे रहित जो पुरुषोंमें विशेष है, वह ईश्वर है।'
                                                       (योग० १।२५)
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्। 
'सर्वज्ञताका बीज (कारण) अर्थात् सम्यक् ज्ञान उस परमेश्वरमें सबसे बढ़कर है, उससे बढ़कर किसीमें नहीं है।'
पूर्वेषामपि  गुरुः     कालेनानवच्छेदात्। (योग० १ ।२६)
'वह ईश्वर ब्रह्मादिकोंको भी शिक्षा देनेवाला और सबसे बड़ा है,• क्योंकि उसका कालके द्वारा अन्त नही होता।'
४. महाभारतमें आया है -----
ऋषयः  पितरो   देवा   महाभूतानि  धातवः। 
जङ्गमाजङ्गमं   चेदं        जगन्नारायणोभ्दम् ।।
                                    (अनुशासन १४१।१३८)
'समस्त ऋषिगण, पितृगण, देवगण और प्रकृतिके विकाररुप पाँच महाभूत आदि तथा मूल प्रकृति, बुद्धि अहंकार और पञ्चतन्मात्राएँ यह  सम्पूर्णजड-चेतननात्मक जगत् नारायणसे ही उत्पन्न हुआ है।'
५. श्रीविष्णुपुराणमें आता है ----- 
स ईश्वरो व्यष्टिसमष्टिरुपो  व्यक्तस्वरुपोअप्रकटस्वरूपः। 
सर्वेश्वरः  सर्वदृक् सर्वविच्च  समस्तशक्तिःपरमेश्वराख्ययः।। 
'वे ईश्वर ही समष्टि और व्यष्टिरुप हैं, वे ही व्यक्त और अव्यक्तसकवरुप हैं, वे ही सबके स्वामी, सबके साक्षी और सब कुछ  जाननेवाले हैं तथा उन्हींसर्वशक्तिमान को परमेश्वर कहते हैं।'
६. गीता कहती है ---
उत्तमः  पुरुषस्तवन्ययः  परमात्मेत्युदाहृतः। 
यो  लोकत्रयमाविश्य  बिभत्यरव्यय  ईश्वरः।। 
'इन (क्षर-अक्षर) दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकोंमें प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा ---इस प्रकार  कहा गया है।'
अगले भागों में। 
           




    

 




Sunday, 26 April 2020

ॐ ।। श्रीपरमात्मने नमः।। महत्वपूर्ण शिक्षा हिंदू -संस्कृतिका स्वरूप हिंदू -संस्कृति और रामायण

हिंदू -संस्कृतिके स्वरुपको बतलानेके  लिए रामायण एक महान् आदर्श ग्रन्थ है। उसमें हिंदू -संस्कृतिका स्वरूप स्थल -स्थलपर भरा है। हिमालयका 'हि' और सिंन्धु (समुद्र) का 'न्धु' लेकर 'हिन्धु' शब्द बना है। उसीका अपभ्रंश 'हिंदू' शब्द है। हिमालयसे समुद्रतकके स्थानका नाम है हिंदुस्थान और उसमें बसनेवाली जातिका नाम हिंदू है। हिंदूजातिका ही दूसरा नाम है ---आर्यजाति, श्रेष्ठजाति। इस जातिका चाल-चलन, रहन-सहन, आहार-व्यवहार, आदि जो स्वाभाविक कल्याणमय आचरण है, उसका नाम है 'हिंदू-संस्कृति'। आर्य पुरुषोंकी उक्त संस्कृतिको सदाचार कहा जाता है। उनका चाल-चलन, आहार-विहार, खान-पान, आदि प्रत्येक आचरण श्रुति-स्मृति-विहित होनेसे आत्माका कल्याण करनेवाला है। इस लोक और परलोकमें कल्याण करनेवाला होनेके कारण इस सदाचारको ही 'हिंदु-धर्म' * कहते हैं। यह अनादि कालसे चला आ रहा है, इसलिये इसीको 'सनातन-धर्म' कहते हैं। मनुजीका वचन है ----
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। 
एतच्चतुरर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।। 
                                                                (२।१३)
'वेद, स्मृति, सत्पुरुषोंका आचरण तथा अपने आत्माका प्रिय (हित) करनेवाला कार्य ---- इस तरह चारकार यह धर्मका साक्षात् लक्षण कहा गया है।'
यह सनातनधर्म ईश्वरका कानून है और सदा ईश्वरमें निवास करता है। भगवान् ने गीतामें कहा है ---
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम। 
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्षवाकवेअब्रवीत्।। 
'मैंने इस अविनाशी योगको सूर्यसे कहा था, सूर्यने अपने पुत्र वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र राजा इक्षवाकुसे कहा।'
तथा यह प्रलयके समय ईश्वरमें ही समा जाता है। इसलिये ईश्वर ही इसकी प्रतिष्ठा हैं। भगवान् ने स्वयं कहा है ---
ब्रह्मणो  हि   प्रतिष्ठाहममृतस्यैकान्तिकस्य  च। 
शाश्वतस्य  च   धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य   च।। 
                                                      (गीता १४।२७)

'क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्य धर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका आश्रय मैं हूँ।'
    अतः इस शाश्वत धर्मको ईश्वरका रूप ही कहा जाता है। यह सदासे है और सदा रहेगा, इसलिये इसका नाम 'सनातन-धर्म' है। 
यह कभी प्रकटरुपसे रहता है, कभी अप्रकटरुपसे,• किंतु इसका कभी विनाश नहीं होता। ईश्वरके अवतारकी भाँति इसका केवल प्रादुर्भाव और तिरोभाव होता है। 
वाल्मीकिय और अध्यात्मरामायणके समस्त श्लोक तथा तुलसीकृत रामचरितमानसके सारे दोहे, चौपाई, छन्द आदि सभी इसी शाश्वत धर्मरुप हिंदू-संस्कृतिका दिग्दर्शन करा रहे हैं। उनमें भी श्रीराम और सीताके आदर्श चरित्र एवं सभी भाइयोंका परस्पर भ्रातृप्रेम हिंदू-संस्कृतिके प्रधान निदर्शक हैं ।

Monday, 23 December 2019

Bhagwat Geeta Saar -How to God Life and Gyan

                           ।।ॐ।। 

• चौथा स्तम्भ मोक्ष का है और  🐘 इसका प्रतीक है :- इस परीक्षा रुपी जीवन में हर मनुष्य में कुछ इच्छाएं रखता है। कुछ इच्छाएं इसी जन्म काल में पूरी हो जाती है। और कुछ अधुरी रह जाती है। और उनके पूरा होने के लिए आत्मा को वापस पृथ्वी पे आना परता है। भगवतद्गीता समझाती है कि हमारी इच्छाएं इन्हीं मूल कारण है। हमारे पृथ्वी पे वापस आने का और अगर कोई भी इच्छा न रखें तो हम जीवन और मृत्यु से मुक्त हो सकते हैं। ये द्वार माफी का भी है, जिन्होंने आपके साथ बुरा किया उनको माफ करके और जिनसे आपने बुरा किया उनसे माफी माँगने से मुक्ति पाई जा सकती है। जब तक आत्मा इन चारों दरबारों :- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को समझ नहीं लेती तब तक आत्मा को बार - बार मनुष्य रुप में आना ही पड़ता है। परीक्षा का समय खत्म होते ही आत्मा शरीर और अन्य सब वस्तुओं का त्याग कर देती है। जो भी इस संसार में रह कर बनाया वो अब किसी और का होगा और आत्मा अपने कर्मों के फैसले के लिए चली जाती है। आत्मा के अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब होता है। अपने अच्छे कर्मों के लिए आत्मा कुछ वक्त के लिए स्वर्ग और दूष्कर्मों के लिए नर्क चले जाती है। नर्क में आत्मा को अपने पापों के अनुकुल सजाएं मिलती है। पर सजा खत्म होने के बाद आत्मा को फिर से एक नया शरीर और नया दिमाग मिलता है। इस परीक्षा में फिर से बैठने के लिए और हर परीक्षा में वही सब फिर दोहराया जाएगा ज़िन्दगी के चार स्तम्भ :- धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष को समझने के लिए हर जन्म में अपने कई जन्मों के कर्मों के हिसाब से आत्मा को कभी अच्छे कभी बुरे हालातों से जाना पड़ता है। लेकिन जब तक आत्मा परमात्मा के साथ योग को नहीं समझ लेती वो मुक्ति नहीं पा सकती। भगवतद्गीता समझाती है कि मनुष्य अपने शरीर, दिमाग या दिल से भगवान को पा सकती है। शरीर द्वारा किये कर्मों के माध्यम से परमात्मा को पाने को कर्म योग कहते हैं। ऐसे कर्म जो परमात्मा कि इच्छा से हो और दूसरे के कल्याण के लिए। वाल्मीकि ने रामायण लिखे, श्रवण ने अपने माता पिता की सेवा और उन्हें चार धाम की यात्रा करवा के, मदरट्रेसा ने अपने प्यार और सेवा के माध्यम से और मैडम खीडी़ ने वैज्ञानिक खोज में अपने जीवन का बलिदान दे दिए अपने कर्म कर्म से परमात्मा को पाया। भगवतद्गीता समझाती है कि आत्मा दिमाग से भी प्रमात्मा के साथ भी योग लगा सकती है। इसे राजा योग कहते हैं क्योंकि दिमाग मस्तिष्क सब इन्द्रियों का राजा है। एक मनुष्य अपनी आस्था श्वांशप्रणाली, आशन, अभ्यास, साधना और तपस्या से परमात्मा को योग के रास्ते पा लेता है। इस योग को समझने के लिए हमें अंदर की (Energy) यानी चक्र और कुण्डलनी को समझना पडे़गा। आत्मा मस्तिष्क से (Meditation) या ध्यान लगा के परमात्मा के साथ योग लगा सकते हैं। शंकराचार्य, स्वामीपरमहंश, स्वामी वीवेकानंद और उनके जैसे कई योगी इस योग के रास्ते परमात्मा के साथ शंधी लगा पाए। परमात्मा भगवतद्गीता में कहते हैं कि अगर किसी आत्मा को धर्म न भी समझ आए, योग न भी समझ आए वो मेरी शरण में आ जाए तो मैं उसके सारे पाप माफ कर देता हूँ। परमात्मा को अपने दिल की गहराईयों से पुकार पाने को भक्ति योग कहते हैं, चैतन्य महाप्रभु मीराबाई और भगवान हनुमान इस योग के सबसे बड़े उदाहरण हैं। लेकिन कभी आत्मा अपने होने का मुल कारण भूल के धर्म का उलंघन करे, या पाप के रास्ते पे निकल जाए तो उसे ठीक करने के लिए परमात्मा खुद किसी न किसी रूप में पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। आइए श्रीमदभगवद्गीता, गुरू ग्रंथ साहेब, तुरा, बाइबल, कुरान, या ऐसी किसी भी दिनी किताब को पढ़ के इस ज़िन्दगी के असली माइने को समझें और परमात्मा के साथ योग लगाएं। 
             धन्यवाद। 
गुरुर ब्रह्मा गुरूर विष्णु गुरुर देवोमहेश्वराय। 
गुरूर साक्षात परब्रह्म तस्मय श्री गुरुवे नमः।।