Sunday, 26 April 2020

ॐ ।। श्रीपरमात्मने नमः।। महत्वपूर्ण शिक्षा हिंदू -संस्कृतिका स्वरूप हिंदू -संस्कृति और रामायण

हिंदू -संस्कृतिके स्वरुपको बतलानेके  लिए रामायण एक महान् आदर्श ग्रन्थ है। उसमें हिंदू -संस्कृतिका स्वरूप स्थल -स्थलपर भरा है। हिमालयका 'हि' और सिंन्धु (समुद्र) का 'न्धु' लेकर 'हिन्धु' शब्द बना है। उसीका अपभ्रंश 'हिंदू' शब्द है। हिमालयसे समुद्रतकके स्थानका नाम है हिंदुस्थान और उसमें बसनेवाली जातिका नाम हिंदू है। हिंदूजातिका ही दूसरा नाम है ---आर्यजाति, श्रेष्ठजाति। इस जातिका चाल-चलन, रहन-सहन, आहार-व्यवहार, आदि जो स्वाभाविक कल्याणमय आचरण है, उसका नाम है 'हिंदू-संस्कृति'। आर्य पुरुषोंकी उक्त संस्कृतिको सदाचार कहा जाता है। उनका चाल-चलन, आहार-विहार, खान-पान, आदि प्रत्येक आचरण श्रुति-स्मृति-विहित होनेसे आत्माका कल्याण करनेवाला है। इस लोक और परलोकमें कल्याण करनेवाला होनेके कारण इस सदाचारको ही 'हिंदु-धर्म' * कहते हैं। यह अनादि कालसे चला आ रहा है, इसलिये इसीको 'सनातन-धर्म' कहते हैं। मनुजीका वचन है ----
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। 
एतच्चतुरर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।। 
                                                                (२।१३)
'वेद, स्मृति, सत्पुरुषोंका आचरण तथा अपने आत्माका प्रिय (हित) करनेवाला कार्य ---- इस तरह चारकार यह धर्मका साक्षात् लक्षण कहा गया है।'
यह सनातनधर्म ईश्वरका कानून है और सदा ईश्वरमें निवास करता है। भगवान् ने गीतामें कहा है ---
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम। 
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्षवाकवेअब्रवीत्।। 
'मैंने इस अविनाशी योगको सूर्यसे कहा था, सूर्यने अपने पुत्र वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र राजा इक्षवाकुसे कहा।'
तथा यह प्रलयके समय ईश्वरमें ही समा जाता है। इसलिये ईश्वर ही इसकी प्रतिष्ठा हैं। भगवान् ने स्वयं कहा है ---
ब्रह्मणो  हि   प्रतिष्ठाहममृतस्यैकान्तिकस्य  च। 
शाश्वतस्य  च   धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य   च।। 
                                                      (गीता १४।२७)

'क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्य धर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका आश्रय मैं हूँ।'
    अतः इस शाश्वत धर्मको ईश्वरका रूप ही कहा जाता है। यह सदासे है और सदा रहेगा, इसलिये इसका नाम 'सनातन-धर्म' है। 
यह कभी प्रकटरुपसे रहता है, कभी अप्रकटरुपसे,• किंतु इसका कभी विनाश नहीं होता। ईश्वरके अवतारकी भाँति इसका केवल प्रादुर्भाव और तिरोभाव होता है। 
वाल्मीकिय और अध्यात्मरामायणके समस्त श्लोक तथा तुलसीकृत रामचरितमानसके सारे दोहे, चौपाई, छन्द आदि सभी इसी शाश्वत धर्मरुप हिंदू-संस्कृतिका दिग्दर्शन करा रहे हैं। उनमें भी श्रीराम और सीताके आदर्श चरित्र एवं सभी भाइयोंका परस्पर भ्रातृप्रेम हिंदू-संस्कृतिके प्रधान निदर्शक हैं ।

No comments:

Post a Comment