वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुरर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।
(२।१३)
'वेद, स्मृति, सत्पुरुषोंका आचरण तथा अपने आत्माका प्रिय (हित) करनेवाला कार्य ---- इस तरह चारकार यह धर्मका साक्षात् लक्षण कहा गया है।'
यह सनातनधर्म ईश्वरका कानून है और सदा ईश्वरमें निवास करता है। भगवान् ने गीतामें कहा है ---
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्षवाकवेअब्रवीत्।।
'मैंने इस अविनाशी योगको सूर्यसे कहा था, सूर्यने अपने पुत्र वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र राजा इक्षवाकुसे कहा।'
तथा यह प्रलयके समय ईश्वरमें ही समा जाता है। इसलिये ईश्वर ही इसकी प्रतिष्ठा हैं। भगवान् ने स्वयं कहा है ---
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्यैकान्तिकस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।
(गीता १४।२७)
'क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्य धर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका आश्रय मैं हूँ।'
अतः इस शाश्वत धर्मको ईश्वरका रूप ही कहा जाता है। यह सदासे है और सदा रहेगा, इसलिये इसका नाम 'सनातन-धर्म' है।
यह कभी प्रकटरुपसे रहता है, कभी अप्रकटरुपसे,• किंतु इसका कभी विनाश नहीं होता। ईश्वरके अवतारकी भाँति इसका केवल प्रादुर्भाव और तिरोभाव होता है।
वाल्मीकिय और अध्यात्मरामायणके समस्त श्लोक तथा तुलसीकृत रामचरितमानसके सारे दोहे, चौपाई, छन्द आदि सभी इसी शाश्वत धर्मरुप हिंदू-संस्कृतिका दिग्दर्शन करा रहे हैं। उनमें भी श्रीराम और सीताके आदर्श चरित्र एवं सभी भाइयोंका परस्पर भ्रातृप्रेम हिंदू-संस्कृतिके प्रधान निदर्शक हैं ।
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