यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेभ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां ।।
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ।।
'जिनकी मायाके वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देेेेेवता और असुर हैं,
जिनकी सत्तासे रस्सीमें सर्पके भ्रमकी भाँति यह सारा दृश्य जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके श्रीचरण ही भवसागरसे तरनेकी इच्छावालोंके लिये एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणोंसे परे (सब कारणोंके कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहानेवाले भगवान् श्रीहरिकी मैं वन्दना करता हूँ।'
तथा अरण्यकाण्डमें श्रीलक्ष्मणजीके पूछनेपर भगवान् स्वयं कहते हैं ••••
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ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया।।
(१८ । ६२)
'अर्जुन ! शरीररुप यन्तमें आरुढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोंकि अनुसार भ्रमण करता हुआ सब प्राणियोंके हृदयमें स्थित है।'
७. श्रीभागवतकार कहते हैं ••••
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यान्ति युत्सूरयः। तेजोवखरिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहं सत्यं परं धीमहि ।।
(१ । १ । १)
'जिससे इस जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार होता है, जो अन्वय और व्यतिरेक ••••दोनों प्रकारसे सत्य है अर्थात् जिसकी सत्तासे ही जगत् की सत्ता है, परन्तु जगत् के न रहनेपर भी जिसका अस्तित्व अक्षुण्ण रहता है, जो जगत् के सम्पूर्ण पदार्थोंमें व्याप्त और सर्वज्ञ है तथा अखण्ड, अबाध, ज्ञानसम्पन्न होनेके कारण जो स्वयंप्रकाश है, जिसके सम्बन्धमें बड़े - बड़े ऋषि -मुनि मोहित हो जाते हैं,• जिसके सत्य - स्वरुपमें यह त्रिगुणमयी सृष्टि उसकी सत्तासे सत्य है, परन्तु भिन्न - भिन्न नामरुपोंकी दृष्टिसे असत्य भी है •••• जैसे तेजोमय सूर्यकी किरणोंसे काँच आदि मृत्तिकाके विकारोंमें जलकी और जलमें स्थलकी भ्रान्ति हो जाया करती है, जिसके अपने ज्ञानमय प्रकाशसे
माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।।
'जो मायाको, ईश्वरको और अपने स्वरूपको नहीं जानता, वह जीव है•, और जो कर्मानुसार बन्धन और मोक्ष देनेवाला, सबसे परे, माया प्रेरक और कल्याणमय है, वह ईश्वर है।'
जो ईश्वरको नहीं माननेवाले नास्तिक हैं, उन्होंने अनेक प्रकारके झूठे तर्क-वितर्क करके बहुत -से अनजान लोगोंको मोहित कर दिया है, जिससे वे बेचारे भोले -भाले लोग भ्रममें पड़कर ईश्वरके सम्बन्धमें भी अनेक प्रकारके शङ्का-समाधान करने लगे। इससे हमारी हिंदू-संस्कृतिटका ह्लास होने लगा, जो हिंदुस्तानके पतनमें बहुत बड़ा कारण सिद्ध हुआ। ईश्वरको माननेमें लाभ और न माननेमें अनेक हानियाँ प्रत्यक्ष ही हैं।
ईश्वरको माननेवाला मनुष्य ईश्वरके भयसे पाप नहीं करता और ईश्वरपर निर्भर हो जाता है, जिससे उसके हृदयमें निर्भयता, धीरता, वीरता, गम्भीरता आदि अनेक गुण आ जाते हैं। ईश्वरके चिन्तनसे अनायास ही सारे दुर्गुण - दुराचारोंका नाश होकर उसमें पूर्णतया सदगुण - सदाचार आ जाते हैं तथा परम शान्ति और परम आनन्दकी प्राप्ति होकर मरने पर उत्तम गति मिलती है।
ईश्वरको न माननेवाले नास्तिकके हृदयमें दुर्गुण - दुराचार घर कर लेते हैं। उसे ईश्वरका तो भय रहता नहीं, फिर वह क्यों पाप करनेसे रुकेगा ? उसे पापोंके फलस्वरूप दुःखोंकी प्राप्ति होने पर चिन्ता, शोक, भय प्राप्त होते हैं और मरनेपर उसकी बड़ी दुर्गति होती है। तर्कसे भी यह बात सिद्ध है। आप कहते हैं, 'ईश्वर नहीं है' और मैं कहता हूँ 'ईश्वर है' थोड़ी देर के लिए मान लीजीये, आपकी बात ही सत्य हो, तो ऐसी परिस्थितिमें यदि ईश्वर नहीं है और मैंने भूलसे ईश्वरको मान लिया तो इससे मुझे क्या हानी होगी ? आपकी मान्यताके अनुसार वास्तवमें ईश्वर है ही नहीं, तो चाहे जितना ही उसकी प्राप्तिके लिए प्रयत्न किया जाय, न वह आपको मिलेगा न मुझे ही। यह तो हो ही नहीं सकता कि मुझे ईश्वर न मिले और आपको मिल जाय,• जब ईश्वर है ही नहीं, तब मिलेगा क्या ? हमने जो भूलसे ईश्वरको मान लिया, उसके फलस्वरूप हमें कोई दण्ड तो होना ही नहीं है। फलतः आप और हम दोनों समान कक्षामें ही रहेंगे। परन्तु थोड़ी देरके लिये मान लें यदि हमारी मान्यता सत्य हो गयी, ईश्वरका वास्तवमें होना प्रमाणित होना प्रमाणित हो गया तो इसके फलस्वरूप यदि हमने शास्त्रानुसार साधन किया तो हमें तो ईश्वरकी प्राप्ति होकर परम शान्ति और परमानन्दकि प्राप्ति हो जायगी और आप इन सबसे वङ्चित रहेंगे। इतना ही नहीं, इसके फलस्वरूप आपको घोर नरकोंकी प्राप्ति होगी और भारी दुःखोंका सामना करना पड़ेगा। इस तर्कके अनुसार भी ईश्वरको मानना ही सब प्रकारसे श्रेयस्कर है।
अन्य युक्तियोंसे भी ईश्वरका होना सिद्ध है। ईश्वरके बिना किसीका भी काम चलना सम्भव नहीं है। आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि सभी ईश्वरके अस्तीत्वको प्रमाणित कर रहे हैं। ये सभी जिससे उत्पन्न हुए हैं और जिससे संचालित हो रहे हैं, वही ईश्वर है,• क्योंकि बिना किसी कारणके कोई कार्य नहीं हो सकता। अतः इस जगत् का भी तो कोई कारण होना चाहिए। यह सारा जगत् जिससे उत्पन्न हुआ है, वही सबका अभिन्न निमित्तोपादन कारण*
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माया ••••छल -कपट आदि सदा ही निरस्त रहते हैं, उस परम सत्यस्वरुप परमेश्वरका हम ध्यान करते हैं।'
तथा ••••
यथोर्णनाभिहृदयादूर्णां संतत्य वक्त्रतः।
तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः।।
(११।९।२१)
'जिस प्रकार मकडी़ अपने पेटमेंसे मुखद्वारा तन्तुको निकालकर उसको फैलाती है और उसके साथ विहार करके पुनः निगल जाती है, उसी प्रकार सर्वेश्वर परमात्मा भी (जगत् की रचना करके तथा उसमें विहार करके पुनः अपनेमें उसे लीन कर लेते हैं)।'
* जिस वस्त्तुसेे जो चीज बनती है, वह उसका उपादान - कारण है और बनानेेेवाला निमित्तकारण ---
जैसे घड़ेका उपादानकारण मिट्टी है और निमित्तकारण कुम्हार है | किंतु संसारके उपादान और निमित्तकारण परमात्मा ही हैं | जैसे मकड़ी जाला तानती है, तो उस जालेका उपादान कारण भी मकड़ी है और निमित्तकारण भी मकड़ी ही है, उसी प्रकार परमात्मा जगत् के उपादान और निमित्तकारण दोनों हैं और वे उससे अभिन्न हैं |Iampampamsinghchauhan
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