Friday, 1 May 2020

हिंदू -संस्कृतिका स्वरुप

* जिस वस्तुसे जो चीज बनती है, वह उसका उपादान -कारण है और बनानेवाला निमित्तकारण ---
जैसे घड़ेका उपादानकारण मिट्टी है और निमित्तकारण कुम्हार है। किंतु संसारके उपादान और निमित्तकारण परमात्मा ही हैं। जैसे मकड़ी जाला तानती है, तो उस जालेका उपादान कारण भी मकड़ी है और निमित्तकारण भी मकड़ी ही है, उसी प्रकार परमात्मा जगत् के उपादान और निमित्तकारण दोनों हैं और वे उससे अभिन्न हैं। 
एकमात्र परमात्मा है।  जो इस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाला तथा पाप -पुण्यके अनुसार फलदाता और सबको नियममें रखकर यथायोग्य संचालन करनेवाला है, वही ईश्वर है। संसारमें बड़े -बड़े यन्त्र और कारखाने हैं•, किंतु बिना किसी बुद्धिमान् चेतन संचालकके उनका चलना सम्भव नहीं, बल्कि बिना उसके वे नष्ट - भ्रष्ट हो जाते हैं। 
             आपकी दृष्टिमें जो कुछ देखने - सुननेमें आता है, वह सब जिससे संचालित है, वह ईश्वर है। वह है चेतन •, क्योंकि जो जड प्रकृत (नेचर) है, उसमें ज्ञान न होनेके कारण वह न तो सबको यथायोग्य स्थानमें स्थापित ही कर सकती है और न उसका संचालन ही कर सकती है•,
किंतु इस संसारके पिछे जो शक्ति है, उसका कार्य देखनेसे मालूम होता है कि वह बहुत विलक्षण अतिशय ज्ञानमयी शक्ति है। जिससे समस्त संसारका संचालन नियमानुसार हो रहा है, उसकी इस विलक्षण कुशलताको तो देखिये। ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म -से -सूक्ष्म प्राणी होते हैं, जो सूक्ष्मतासे देखनेसे कागजोंपर भी कभी - कभी लक्ष्यमें आते हैं। वे सफेद, लाल आदि अनेक रंगोंके होते हैं। और पोस्ताके दानेकी अपेक्षा भी सूक्ष्म होते हैं। उन्हें कोई 'पोस्तिया जानवर' भी कहते हैं। उनके इतने सूक्ष्म शरीरमें भी सब यन्त्र होते हैं। चलनेके लिये पैर और उड़नेके लिये पँखें तो रहती ही हैं•, मन, बुद्धि, भी होती हैं। इनके अलावा शरीरके भीतरके बहुत -से यन्त्र भी उसी जन्तुके अंदर होते हैं। उनमें सूक्ष्म जीव होते हैं,जो देखनेमें भी नहीं आते। अब विचारिये, उसका निर्माता कितना बुद्धिकुशल होना चाहिये। यह काम जड प्रकृतिसे सम्भव नहीं। 
मनुष्योंकी प्रकृति, बुद्धि, इन्द्रियाँ भिन्न -भिन्न होनेसे उनके आचरण भी भिन्न - भिन्न होते हैं। ऐसे उन विभिन्न मनुष्योंके पुण्य -पापरुप आचरणोंके अनुसार यथायोग्य सुख -दुःखादिका भुगताना भी जड प्रकृतिका काम नहीं हो सकता। अतः उसका फलदाता भी कोई बुद्धिका महान्  सागर चेतन ही होना चाहिये और वह है एकमात्र परमात्मा। 
देखिये, संसारमें ऐसा कोई भी यन्त्र देखनेमें नहीं आता जिसका काम बिना सँभालके चल सके। उदाहरणार्थ कपड़ेकी या गंजीकी कल है,° यदि  उसका संचालक कोई चेतन पुरुष नहीं होगा तो न कपड़ा ही तैयार होगा और न गंजी ही,° क्योंकि तार टूटनेपर संचालकके बिना उसे कौन जोडे़गा। बल्कि यन्त्र ही नष्ट हो जायेगा। बड़े -से बड़ा यन्त्र रेलगाड़ी है। उसके इंजन, पटरी आदिकी सार -सँभाल-मरम्मत आदि नहीं होगी तो उसका चलना सम्भव नहीं। किसी बुद्धिशाली चेतन संचालक, संयोजकके बिना एक दिन भी काम नहीं चलेगा और सब नष्ट-भ्रष्ट हो सकता है। इसी प्रकार यह सारा जगच्चक्र चल रहा है। यदि इसका निर्माता, संयोजक, संचालक तथा सँभाल -मरम्मत करनेवाला कोई बुद्धिशाली चेतन न हो तो इसकी भी वही दशा होगी। 
       हम, आप कोई प्राणी अपनी सत्तामें संदेह नहीं करते। हम हैं, साथ ही हम चेतन हैं,° किंतु ज्ञानके लिये इच्छुक भी हैं। हमको और अधिक ज्ञान मिले, इस प्रयत्नमें रहते हैं,° सभी ज्ञानके साथ सुख चाहते हैं और किसी -न -किसीको अपनेसे अधिक सुखी मानते हैं। इस प्रकार सत्ता, ज्ञान और सुख----- सत्, चित, आनन्दको हम मानते तो हैं और यह भी देखते हैं कि जीवोंमें ज्ञान और आनन्द कहीं पूर्ण नहीं, सब उसको पानेके ही स्रयत्नमें हैं। जिसे सभी विद्वान् पाना चाहते हैं, वह नहीं है ------ऐसा सम्भव नहीं। अतः जहाँ सत्ता, ज्ञान और आनन्द तीनों पूर्णरुपसे हैं, वही तो सच्चिदानन्द ईश्वर है। जडमें तो केवल सत्ता ही प्रत्यक्ष प्रतीत होती है, चेतनता और आनन्द नहीं और सबसे छोटे प्राणी जो दूरबीनसे भी कठिनतासे दीखते हैं, उनमें भी सत्ताके साथ ज्ञान रहता है। वे अपने आहारको पहचानतेसे दीखते हैं, उनमें भी सत्ता के साथ ज्ञान रहता है। वेअपने आहारको पहचानते हैं, वे भी सुख चाहते हैं,° क्योंकि शत्रुसे डरकर भागते उन्हें भी देखा गया है। यह चेतना, ज्ञान और सुखकी इच्छा जब जडमें नहीं है, तब कहीं माननी पडे़गी। जहाँ वह है, वहीं परमात्मा है। वह चेतन ही इस जडका संचालक है। वही सर्वेश्वर है। 
   इससे यही निर्णय हुआ कि इसका उत्पादक, निर्माता, संचालक, रक्षक------जो कोई है, वही चेतन परमात्मा है। यह हिंदुओंकी अनुभवयुक्त मान्यता सदासे चली आ रही है -----इसीको 'हिंदू -संस्कृति' कहते हैं। 
                         अवतारवाद 
भगवान्  श्रीराम, श्रीकृष्ण,साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा हैं, यह विश्वास हिंदू -जातियोंमें प्रायः सदासे ही चला आ रहा है। यह युक्तियुक्त और उचित ही है। निर्गुण -निराकाररुप सच्चिदाननकदघन परमात्मा ही सगुण -साकाररुपमें प्रकट होते हैं, जैसे आकाशमें परमाणुरुपसे स्थित जल ही बादलके रुपमें आकार फिर जल और बर्फके रुपमें प्रकट होकर बरसने लगता है। सर्गके आदीमें सारे पदार्थ भी निराकारसे साकार बनते हैं ------
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्तयहरागमे। 
                                              (गीता ८। १८)
उस निराकाररुपब्रहह्माके सूक्ष्म शरीरसे ही सारी स्थूल व्यक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार वह सच्चिदाननकदघन परमात्मा स्वयं ही निराकार -रुपसे साकार -रुपको धारण करता है। इसीका नाम अवतार लेना है। तुलसीकृत रामायणमें अवतारवाद स्थान -स्थानपर भरा हुआ है । यहाँ संक्षेपसे कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है। 
बालकाण्डमें श्रीशिवजी पार्वतीसे  कहते हैं -----
जब  जब  होई  धरम  कै हानि।  
बाढहिं असुर अधम अभिमानी।। 
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी।                      सीदहिं बिप्र धेनु सुर धेनु सुर धरनी।। 
तब  तब  प्रभु धरि बिबिध सरीरा। 
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।। 
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु। 
जग  बिस्तारहिं  बिसद जस  राम जन्   कर हेतु ।।
वाल्मीकीय रामायणमें लिखा है कि जब देवता और ऋषियोंने रावणके उपद्रवोंसे दुःखित हो ब्रह्माजीसे प्रार्थना की, तब ब्रह्माजी उन्हें सान्त्वना देने लगे। उसी समय भगवान् श्रीविष्णुके प्रकट होनेका वर्णन इस प्रकार आया है ------
एतस्मिन्नन्तरे      विष्णुरुपयातो   महाद्युतिः। 
शङ्खचक्रगदापाणिः  पीतवासा  जगत्पतिः।। 
वैनतेयं  समारुह्य  भास्करस्तोयदं   यथा     ।
तप्तहाटककेयूरो   वन्धमानः      सुरोत्तमैः    ।।
                                       (वा० रा०, १५।१६-१७)
'उसी समय महान्  तेजस्वी जगत्पति भगवान् विष्णु मेघपर आरुढ़ हुए -से सूर्यके समान गरुड़पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे। उनके शरीरपर पीताम्बर, हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा आदि आयुध एवं भुजाओंमें चमकीले स्वर्णके बाजूबंद शोभा पा रहे थे। सभी श्रेष्ठ देवताओंने उनको प्रणाम किया।'
भगवान् ने देवताओंकी प्रार्थनापर दशरथजीके घरमें मनुष्य -रुपसे अवतार लेना स्वीकार कर लिया ------
सत्ता क्रुरं  दुराधर्षं देवर्षीणां  भयावहता। 
दशवर्षसहस्त्राणि  दशवर्षशतानि     च।। 
वत्सयामि मानुषे लोके पालयन् पृथिवीमिमाम्। 
                               (वा० रा०, बाल० १५।२१-३०)
'देवता और ऋषियोंके भय देनेवाले उस क्रुर एवं दुर्धर्ष राक्षसका नाश करके मैं ग्यारह सहस्त्र वर्षोंतक इस पृथ्वीका पालन करता हुआ मनुष्यलोकमें निवास करुँगा। '
अध्यात्मरामायणमें कथा आति है ------ जब विश्वामित्रजी श्रीराम-लक्ष्मणको यज्ञरक्षार्थ ले जानेके लिये आये, उस समय दशरथजीके द्वारा सलाहके रुपमें पूछे जानेपर वसिष्ठजीने कहा ------
शृणु  राजन्   देवगुह्यां  गोपनीयं  प्रयत्नतः। 
रामो  न  मानुषो जातः परमात्मा सनातनः।। 
भूमेर्भारावताराय  ब्रह्मणा  प्रार्थितः   पुरा  ।
स एव  जातो  भवने  कौसल्लायां तवानघ ।।
                                 (अध्यात्म०, बाल० ४।१२-१३) 
'राजन् ! यह देवताओंकी गुह्य लीला सुनो, इसे किसी प्रकार प्रकट न होने देना चाहिये। ये राम मनुष्य नहीं हैं, साक्षात्  सनातन परमात्मा ही (अपनी मायासे)  इस  रुपमें प्रकट हुए हैं। अनघ !  पूर्वकालमें पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर उसे पूर्ण करनेके लिये उन परमेश्वरने ही तुम्हारे यहाँ कौसल्याके गर्भ से जन्म लिया है। '
चित्रकुटमें माता कैकेयीने श्रीरामसे क्षमा -प्रार्थना करते हुए कहा है --------

त्वं साक्षाद्  विष्णुरव्यक्तः परमात्मा सनातनः। 
मायामानुषरुपेण  मोहयस्यखिलं        जगत् ।।
                              (अध्यात्म०  अयोध्या ०   ९।५६)
'आप साक्षात्  विष्णु  भगवान्,  अव्यक्त परमात्मा और सनातन पुरुष हैं। अपने लीलामय मनुष्यरुपसे आप समस्त संसारको मोहित कर रहे हैं। '
रावणवधके अनन्तर ब्रह्मादि देवताओंसे बातचीत करते हुए श्रीरामने कहा कि 'मैं तो अपनेको दशरथपुत्र राम ही समझता हूँ। वास्तवमें मैं जो हूँ, जैसा हूँ आप ही बतलाइये। '  इसपर ब्रह्माजी श्रीरामका महत्व बतलाते हुए कहते हैं --------
भवान्   नारायणो   देवः  श्रीमांश्चक्रायुधः। 
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सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः  कृष्णः प्रजापतिः।। 
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वधार्थं   रावणस्येह   प्रविष्टो   मानुषीं     तनुम्  ।।
                          (वा० स,० युद्ध ० ११७। १३,२७,२८)
'आप साक्षात् चक्रपाणि लक्ष्मीपति प्रभु श्रीनारायणदेव हैं। सीता साक्षात्  लक्ष्मी हैं, और आप भगवान् विष्णु, कृष्ण * एवं प्रजापति हैं। आपने रावणवधके लिये ही 
  इस मनुष्यलोकमें मानवशरीर धारण किया है। भगवान् के परमधाम पधारनेके प्रकरणसे यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि श्रीराम साक्षात् पूर्णब्रह्म परमेश्वर थे। उस समय ब्रह्माजीके कथनानुसार भगवान् ने अपने भाइयोंके साथ इस मानवविग्रहसे ही उस वैष्णवतेजमें प्रवेश किया ----
विवेश वैष्णवं तेजः सशरीरः सहानुजः। 
                                (वा० रा०, उत्तर ० ११०। १२)
* यहाँ 'कृष्ण' नाम आया है, इससे सिद्ध होता है कि परमात्माका यह नाम अनादिकालसे प्रसिद्ध है,  कृष्ण -अवतार लेनेके कारणसे नहीं। 
इसी प्रकार गीता१, भागवत२ आदि ग्रन्थोंमें भी अवतारवादका उल्लेख स्थान -स्थानपर मिलता है। इसके संस्कार प्रायः हिंदुओंके हृदयमें स्वाभाविक ही अङ्कित हैं। यह है हिंदू -संस्कृति! Pampamsinghchauhan
          



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