बहुत - से आदमी यह शङ्का करते हैं 'मरनेके बाद आत्मा रहता है या नहीं, किये हुए कर्मोंका फल कर्ताको परलोकमें मिलता है या नहीं, मृत व्यक्तिके लिये दिया हुआ पदार्थ उसे मिलता है या नहीं और जो मृत व्यक्ति मुक्त हो गया है, उसके प्रति दिया हुआ पदार्थ किसको मिलता है ?' इन प्रश्नोंका यह है कि
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१- गीतामें कहा है --------
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वोरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ।।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।
(४।६-८)
'मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरुप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतितो अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ। हे भारत ! जब - जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब -तब ही मैं अपने रुपको रचता हूँ अर्थात् साकाररूपसे लोगोंके सम्मुख प्रकट होता हूँ। श्रेष्ठ पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता है।'
२- भागवतमें भगवान् श्रीकृष्ण देवकीसे कहते हैं ------
अदृष्टवान्यतमं लोके शीलौदार्यगुणैः समम् ।
अहं सुतो वामभवं पृश्रीगर्भ इति श्रुतः ।।
तयोर्वां पुनरेवाहमदित्यामास कश्यपात् ।
उपेंद्र इति विख्यातो वामनत्वाच्च वामनः ।।तृतीयेऽस्मिन् भवेऽहं वै तेनैव वयुषाथ वाम् ।
जातो भूयस्तयोरेव सत्य मे व्याहृतं सति ।।
(१०।३।४१।४३)
'संसारमें शील, उदारता आदि सदगुणोंमें अपने सदृश दूसरेको न देखकर मैं स्वयं ही आप दोनोंका पुत्र होकर पहले 'पृश्रीगर्भ' के नामसे विख्यात हुआ था। उसके बाद जब आप दोनों उस समय मेरा शरीर छोटा होनैके कारण मेरा दूसरा नाम 'वामन' हुआ था। इस तीसरे अवतारमें अब मैं ही उसी शरीरसे आप दोनोंके यहाँ पुनः उत्पन्न हुआ हूँ। हे सती ! मैंने यह आपसे सत्य कहा है।' मरनेपर आत्मा अवश्य रहता है तथा किये हुए कर्मोंका फल कर्ताको अवश्यमे मिलता है। वह इस लोकमें भी मिल जाता है और शेष बचा हुआ परलोकमें मिलता है। मृत व्यक्तिके लिये जो कुछ दिया जाता है, वह सब उसे प्राप्त होता है•, किंतु जो मृत व्यक्ति मुक्त हो गया है, उसके प्रति दिया हुआ कर्ताके संचित कर्मरुप कोषमें जमा होता है।
(क) कठोपनिषद् में यमराजके प्रति नचिकेताने भी यही प्रश्न किया था कि मरनेपर आत्मा रहता है या नहीं ? यमराजने यही उत्तर दिया कि अवश्य रहता है।
यमराज कहते हैं -------
न साम्परायः प्रतिभाति बालं
प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी
पुनः पुनर्वशमापद्यते मे।।
(कठ० १ । २ ।६)
'जो धनके मोहसे मोहित हो रहा है ऐसे प्रमादी मूढ़, अविवेकी पुरुषको परलोकमें श्रद्धा नहीं होती। यह लोक ही है, परलोक नहीं है ------इस प्रकार माननेवाला वह मूढ़ मुझ मृत्युके वशमें बार -बार पड़ता है अर्थात् पुनः -पुनः जन्म-मृत्युको प्राप्त होता है। '
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
(कठ० १।२।१८)
'नित्य ज्ञानस्वरुप आत्मा न तो जन्मता है और न मरता ही है। यह न तो स्वयं किसीसे हुआ है, न इससे कोई भी हुआ है। अर्थात् यह न तो किसीका कार्य है और न कारण ही है। शरीरके नाश होनेपर भी इसका नाश नहीं होता।'
गीतामें भी भगवान् कहते हैं -----
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
'न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमेें नहीं था याा तूू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थेे और न ऐसा ही है कि इससे आगेे हम सब नहीं रहेेंगे।'
वाल्मीकीय रामायणमें युद्धके बाद दशरथजीका आना तथा श्रीराम और लक्ष्मण आदिसे वार्तालाप करना परलोकका जीता-जागता प्रमाण है, इसके लिये वाल्मीकीय रामायण युद्धकाण्ड, १२१वाँ सर्ग देखिये।
अन्यान्य शास्त्रोंमें भी जगह -जगह इसके अनेक प्रमाण प्राप्त होते हैं।
हिंदू -जातिके हृदयमें यह संस्कार स्वभाविक ही अङ्कित है। यह युक्तिसंगत भी है। जब मनुष्य जन्मता है, तब उसके जाति, आयु, भोग और स्वभाव भिन्न -भिन्न होते हैं तथा मनुष्यका जन्मते ही रोना, हँसना, कम्पित होना, सोना, माताके स्तनोंसे स्वयं ही दूधको आकर्षित करना आदि उसके पुर्नजन्मके अभ्यासके द्योतक होनेसे पूर्वजन्मको सिद्ध करते हैं। इसलिये आत्मा नित्य है। शरीरके नाश होनेपर भी उसका नाश नहीं होता।
गीतामें भी कहा है ------
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
(२।२०)
'यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला है •,
क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।'
(ख) श्रीरामचरितमानसमें दशरथजीने कहा है -------
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी।
ईस देइ फलु हृदयँ बिचारी ।।
करइ जो करम पाव फल सोई।
निगम नीति अस कह सबु कोई ।।
वाल्मीकीय रामायणमें कहा है ------
अवश्यमेव लभते फलं पापस्य कर्मणः।
भर्तः पर्यागते काले कर्ता नास्तयत्र संशयः।।
शुभकृच्छुभमाप्नोति पापकृत् पापमश्रुते।
(युद्ध। १११।२५-२६)
'स्वामिन् ! इसमें संदेह नहीं कि समय आनेपर कर्ताको उसके पाप-कर्मका फल अवश्य ही मिलता है। शुभ कर्म करनेवालेको उत्तम फलकी प्राप्ति होती है और पापीको पापका फल दुःख भोगना पड़ता है।'
मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे उसका वैसा ही फल प्राप्त होता है -----
यह बात गीता आदि शास्त्रोंमें भलीभाँति बतलायी गयी है। *
यह युक्तियुक्त भी है। मनुष्य जैसे कर्म करता है, उसके अनुसार ही उसके हृदयमें संस्कार जमते हैं। फिर उनके अनुसार ही उसके अन्तःकरणकी वृत्ति बनती है।
वृत्तिके अनुसार ही अन्तकालमें स्मृति होती है और स्मृतिके अनुसार ही भावी जन्म होता है। इन कर्मोंकि भेदके कारण ही मनुष्यके जाति, आयु, भोग और स्वभाव और भोगकी भिन्नता होती है। अर्थात् सब प्राणियोंमें जो बुद्धि, स्वभाव और भोगकी भिन्नता देखी जाती है, इसका मूल कारण कर्म ही है।
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गीता कहती है --------
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङक्ते प्रकृतिजान् गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।।
(१३।२९)
'प्रकृतिमें स्थित ही पुरुष प्रकृतिसे उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थोंको भोगता है और इन गुणोंका सङ्ग ही इस जीवात्माके अच्छी -बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है।'
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ।।
(१४।१६)
'श्रेष्ठ कर्मका तो सात्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है। राजस कर्मका फल दुःख एवं तामस कर्मका फल अज्ञान कहा है।'
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।
'कर्मफलका त्याग न करनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ ------ऐसे तीन प्रकारका फल मरनेके पश्चात् अवश्य होता है, किंतु कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका फल किसी कालमें भी नहीं होता।'
अतः कर्मफल प्राप्त होनेकी बात बिलकुल युक्तिसंगत है और प्रत्यक्ष देखनेमें भी आति है।
(ग) श्राद्ध -तर्पणका उल्लेख रामायणमें स्थान -स्थानपर आया है। श्रीरामचरितमानसमें महाराज दशरथकी मृत्यु होनेपर भरतके द्वारा उनकी यथोचित ऊर्ध्वक्रिया करनेका उल्लेख मिलता है। यथा -------
नृप तनु बेद बिदित अन्हवावा।
परम बिचित्र बिमानु बनावा ।।
चंदन अगर भार बहु त्रआए ।
अमित अनेक सुगंध सुहाऐ ।।
सरजु तीर रचि चिता बनाई ।
जनु सुरपुर सोपान सुहाई ।। एहि बिधी दाह क्रिया सब कीन्हि ।
बिधिवत न्हाइ तिलांजलि दीन्ही ।।
सोधि सुमृति सब बेद पुराना ।
कीन्ह भरत दसगात बिधाना ।।
जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा ।
तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा ।।
भए बिसुद्ध दिए सब दाना ।
धेनु बाजि गज बाहन नाना ।।
श्रीरामचंद्रजी महाराजने भी पिताकी मृत्युका संवाद सुनते ही मन्दाकिनी -तीरपर जाकर तर्पण किया एवं स्वयं जैसा भोजन किया करते थे, उसीके पिण्ड बनाकर
दशरथजीके निमित्त दिये --------
ततो मन्दाकिनीं गत्वा स्नात्वा ते वीतकल्मषाः।।
राज्ञे ददुर्जलं तत्र सर्वे ते जलकांक्षिणे ।
पिण्डन् निर्वापयामास रामो लक्ष्मणसंयुतः ।।
इङ्गदीफलपिण्याकरचितान् मधुसम्पलुतान्।
वयं यदन्नाः पितरस्तदन्नाः स्मृतिनोदिता
(अध्यात्म० अयोध्या० १।१७----१२)
'फिर सब लोग मन्दाकिनीपर जाकर स्नान करके पवित्र हुए। वहाँ उन सबने जलाकांक्षी महाराज दशरथको जलाञ्जलि दी तथा लक्ष्मणजीके सहित श्रीरामचंद्रजीने पिण्ड दिये। जो हमारा अन्न है, वही हमारे पितरोंको प्रिय होगा ------यही स्मृतिकी आज्ञा है, यों कह उन्होंने इंगुदी -फलकी पीठीके पिण्ड बना उनपर मधु डालकर उन्हें प्रदान किया।'
वाल्मीकीय रामायणमें भी इसी भावके द्योतक श्लोक मिलते हैं। रामायणके सिवा श्राद्दका प्रकरण गीता १,मनुस्मृति२ आदि सभी शास्त्रोंमें पाया जाता है।
यह बात युक्तिसंगत भी है। जो आदमी जिस व्यक्तिके नामसे बैंकमें रुपये जमा करता है, उसी व्यक्तिके नाम रुपये जमा हो जाते हैं और जिसके नामसे जमा होते हैं, उसीको मिलते हैं, दूसरेको नहीं। उन रपयोंके बदलेमें उसे जो आवश्यकता होती है, वही चीज उतनी कीमतकी मिल जाती है। इसी प्रकार पितरोंको नामसे किया हुआ पिण्ड, तर्पण, ब्राह्मणभोजन आदि कर्मका जितना मूल्य आँका जाता है, उतना ही फल उस प्राणीको वह जिस योनिमें होता है वहीं आवश्यकतानुसार प्राप्त हो जाता है अर्थात् यदि वह प्राणी गाय है तो उसे चारेके रुपमें, देवता है तो अमृतके रुपमें, मनुष्य है तो अन्नके रुपमें और बंदर आदि है तो फल आदिके रुपमें ही मुल्यकी वस्तु मिल जाती है।
यदि कहें कि जीवित व्यक्तिके लिये भी कोई यज्ञ, दान, अनुष्ठान, व्रत, उपवास आदि कर्म करता है तो क्या वह उसे भी मिलता है,
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१.गीतामें कहा है ------
संकरो नरकायैव कुलन्घानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्योषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।
(१ । ४२)
'वर्णसंकर कुलघातियोंको और कुलको नरकमें ले जानेके लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जलकी क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित इनके पितरलोग भी अधोगतिको प्राप्त होते हैं।'
२. मनुजी कहते हैं ------
यद्यद् ददाति विधिवत् सम्यक् श्रद्धासमन्वितः।
तत्तत् पितृणां भवति परत्रानन्तमक्षयम् ।।
'मनुष्य श्रद्दावान् होकर जो -जो पदार्थ अच्छी तरह विधिपूर्वक पितरोंको देता है, वह -वह परलोकमें पितरोंको अनन्त और अक्षयरुपमें प्राप्त होता है।'
तो इसका उत्तर यह है कि अवश्य उसे मिलता है। नहीं तो, फिर यजमानके लिये जो ब्राह्मण यज्ञ, तप अनुष्ठान, पूजा, पाठ, आदि करता है, वह किसको मिलेगा ?
न्यायतः वह यजमानको ही मिलेगा, कर्म कर्ताको ही मिलता है। जैसे किसी आदमीको रजिस्ट्री चिट्ठी या बीमा भेजी जाती है और जिसको भेजी जाय, वह आदमी मर गया हो तो फिर वह लौटकर भेजनेवालेको ही वापस मिल जाती है, उसी प्रकार इस इस विषयमें भी समझना चाहिये।
ये सब संस्कार हिंदुओंके रग -रगमें भरे हुए हैं। इन्हींको लेकर प्रायः सभी हिंदू सदासे श्राद्ध -तर्पण आदि करते आ रहे हैं। यह है हिंदु -संस्कृति !'मनुष्यकी उत्पत्तिके समयमें जो क्लेश माता -पिता सहते हैं, उसका बदला सैकड़ों वर्षोंमें भी सेवादि करके नहीं चुकाया जा सकता।' Pampamsinghchauhan
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