Monday, 27 April 2020

हिंदू -संस्कृतिका स्वरुप

रामायणमें श्रीरामका आदर्श चरित्र 
श्रीरामचंद्रजीकी सारी ही चेष्टाएँ धर्म, ज्ञान, शिक्षा, गुण, प्रभाव, तत्त्व एवं रहस्यसे भरी हुई हैं | उनका व्यवहार देवता, ऋषि, मुनि, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभीके साथ बहुत ही प्रशंसनीय, अलौकिक और अतुलनीय है | देवता, ऋषि, मुनि और मनुष्योंकी तो बात ही क्या ----जाम्बवान, सुग्रीव,हनुमान् आदि रीछ -वानर,• जटायु आदि पक्षी तथा विभीषण आदि राक्षसोंके साथ भी उनका ऐसा दयापूर्ण, प्रेमयुक्त  और त्यागमय व्यवहार हुआ है कि जिसे स्मरण करनेसे ही रोमान्च हो आता है |भगवान्  श्रीरामकी कोई भी चेष्टा ऐसी नहीं, जो कल्याणकारीणी न हो |
उन्होंने साक्षात्  पूर्णब्रह्म परमात्मा होते हुए भी मित्रोंके साथ मित्रका-सा, माता-पीताके साथ पुत्रका-सा, स्त्रीके साथ पतिका-सा, भाइयों के साथ भाईका-सा, सेवकोंके साथ स्वामीका-सा, मुनि और ब्रह्मणोंके साथ शिष्यका-सा---- इसी प्रकार सबके साथ यथायोग्य त्यागयुक्त प्रेमपूर्ण व्यवहार किया है | अतः उनके प्रत्येक व्यवहारसे हमलोगोंको शिक्षा लेनी चाहिए | 
श्रीरामचंद्रजीकी राज्यका तो कहना ही क्या है, उसकी तो संसारमें एक कहावत हो गयी है | जहाँ कहीं सबसे बढ़कर सुन्दर शासन होता है, वहाँ 'रामराज्य' की उपमा दी जाती है | श्रीरामके राज्यमें प्रायः सभी मनुष्य परस्पर प्रेम करनेवाले तथा नीति, धर्म, सदाचार और ईश्वरकी भक्तिमें तत्पर रहकर अपने -अपने धर्मका पालन करनेवाले थे |प्रायः सभी उदारचरित और परोपकारी थे |वहाँके प्रायः सभी पुरुष एकनारीव्रती और अधिकांश स्त्रियाँ पतिव्रत-धर्मका पालन करनेवाली  थीं | भगवान्  श्रीरामका इतना  प्रभाव था कि उनके राज्यमें मनुष्योंकी तो बात ही क्या, पशु-पक्षी भी प्रायः परस्पर वैर भुलाकर निर्भय विचरा करते थे | भगवान्  श्रीरामके चरित्र बड़े ही प्रभावोत्पादक और अलौकिक थे | यह हमारे आर्य पुरुषोंका स्वाभाविक ही व्यवहार था | इसी आदर्शको हिंदू -संस्कृति कहते हैं | हमें उसी आर्दशको लक्ष्यमें रखकर उसका अनुकरण  करना चाहिए |
       रामायणमें सीताजीका अनुकरणीय चरित्र 
हिंदू -संस्कृतिके अनुसार  पतिके  साथ  पत्नीको कैसा व्यवहार  करना  चाहिए ---- इसकी  शिक्षा  माताएँ  श्रीसीताके  चरित्रसे  ले  सकती  हैं | जगज्जननी  श्रीसीताका  प्रायः  सारा  जीवन  ही  माता -बहिनोंके लिये  आदर्श  और  शिक्षाप्रद  है |
सास-ससुर, माता-पिता, देवरों  सेवकों  तथा  अन्य  सभी  स्त्री-पुरुषोंके  साथ ---- यहाँतक  कि  दुष्टोंके  साथ  भी  कैसा  व्यवहार  करना  चाहिए ----- इसका सुन्दर  उपदेश  हमें  श्रीसीताजीके  जीवनसे  विशेषरुपसे  मिलता है | इसे  किसी  भी  रामायणमें  देख   सकते  हैं |  श्रीसीताजीके  सभी  क्रियाएँ  कल्याणकारिणी  हैं, अतः माता - बहिनोंको सीताजीके  
जीवनमें जो शिक्षाएँ  भरी  हुई  हैं,  उन्हें  अपने  जीवनमें 
उतारनेकी  कोशिश  करनी  चाहिए |

         रामायणमें   भ्रातृ -प्रेम 

हिंदू -संस्कृतिके  अनुसार  भाइयोंके  साथ  कैसा  प्रेमपूर्ण  व्यवहार  होना  चाहिए, इसकी  शिक्षा  हमें  रामायणमें  श्रीराम,  श्रीलक्ष्मण,  श्रीभरत  एवं  श्रीशत्रुघ्नके  चरित्रोंसे  स्थल-स्थलपर  मिलती  है | उनकी  प्रत्येक  क्रियामें  स्वार्थत्याग  और  प्रेमका   भाव 
झलक  रहा  है |  श्रीराम  और  भरतके  स्वार्थत्यागकी  बात  क्या  कही  जाय ------  है  और  भरतकी   श्रीरामके  राज्याभिषेकके  लिए  |  पाठकगण   किसी  भी  रामायणके  अयोध्याकाण्डमें  इस  विषयको  विस्तारपूर्वक  देख  सकते  हैं |  इसी  प्रकार  द्वखपरयुगमें  युद्दिष्ठिर  आदि  पाण्डववोंका परस्पर  भ्रातृ -प्रेम  आदर्श और  अनुकरणीय  है |  यह  है  हिंदू-संस्कृति  !

                    ईश्वरवाद 

 हिंदू -संस्कृतिमें  ईश्वरवाद  एक  प्रधान  स्थान  रखता  है |  ईश्वरको  केवल  हिंदू  ही  नहीं,  ईसाई  और  मुसलमान  आदि  सभी  मानते  हैं |  जिसे  हम  हरि,  ओम,  ईश्वर,  परमात्मा,  नारायण,  राम,  कृष्ण  आदी   अनेक  नामोंसे  कहते  हैं,  उसे  ही  ईसाई,  गॉड  और   मुसलमान  अल्लाह,  खुदा  आदि  नामोंसे  पुकारते  हैं |  जैसे जल,  पानी,  नीर,  अप,  वाटर  आदि   सभी  जलके   ही  नाम  हैं,  उसीके  पर्याय  हैं -----  वस्तुतः  सबका  अर्थ  एक  जल  है ------ उसी प्रकार ये  सभी  नाम  वस्तुतः  एक  ही  ईश्वरके  हैं | 
हमारे  श्रुति,१।  स्मृति, २ दर्शन, ३ इतिहास, ४   पुराण, ५  आदि  शास्त्रोंमें  तो 

१. श्रुति कहती है ------
ईशा  वास्यमिदँ      सर्वं   यत्किञ्च  जगत्यां  जगत्  |
                                                    (यजुर्वेद ४०।१)
'अखिल ब्रह्माण्डमें  जो  कुछ  भी  जड-चेतनस्वरुप  जगत्  है,  वह  समस्त ईश्वरसे व्याप्त है |'
२. मनुजी  कहते  हैं ----
प्रशासितारं                    सर्वेषामणीयांसमणोरपि।    
रुक्माभं          स्वप्नधीगम्यं   विद्यात्  तं  पुरुषं  परम्।। 
एष  सर्वाणि      भूतानि   पञ्चभिव्यारप्य    मूर्तिभिः। 
जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं            संसारयति        चक्रवत् ।।
                                    (मनु० १२। १२२, १२४)

'जो सूक्षमसे  भी  अतिसूक्ष्म  और  सबका  भली   प्रकार  शासश  करनेवाला  है,  उस  परम   पुरुष   परमेश्वरको  जानना  चाहिये।  यही  सम्पूर्ण  प्राणियोंको  पञ्चभूतरुपी  पाँच  मूर्तियोंके  द्वारा  व्याप्त  किये  हुए है  तथा  जन्म, वृद्धि  और  क्षयके  द्वारा निरन्तर समस्त प्राणियोंको चक्रकी भाँति घुमा रहा है।' 
३.  महर्षि  वेदव्यासजी  कहते हैं -----
              जन्माद्यस्य  यतः  ।
                                                  (ब्रह्मसूत्र  १। २)
'इस संसासारकी उत्पत्ति, स्थिति, संहार आदि जिससे होते हैं, वह ईश्वर है।' महर्षि पतञ्चलि  कहते  हैं -----
ईश्वरका  अस्तित्व  पद-पदपर अङ्कित है  तथा  
गीता६, भागवत७, रामायणकी तो  बात ही क्या है ----
ये  तो ईश्वरवादके प्रधान आदर्श  ग्रन्थ हैं  ही। 
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः  पुरुषविशेष   ईश्वरः। 
                                                       (योग०१।२४) 
'क्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश),
कर्म (पाप-पुण्य), कर्मोंकि फल (जाति, आयु, भोग) तथा वासनाओंसे रहित जो पुरुषोंमें विशेष है, वह ईश्वर है।'
                                                       (योग० १।२५)
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्। 
'सर्वज्ञताका बीज (कारण) अर्थात् सम्यक् ज्ञान उस परमेश्वरमें सबसे बढ़कर है, उससे बढ़कर किसीमें नहीं है।'
पूर्वेषामपि  गुरुः     कालेनानवच्छेदात्। (योग० १ ।२६)
'वह ईश्वर ब्रह्मादिकोंको भी शिक्षा देनेवाला और सबसे बड़ा है,• क्योंकि उसका कालके द्वारा अन्त नही होता।'
४. महाभारतमें आया है -----
ऋषयः  पितरो   देवा   महाभूतानि  धातवः। 
जङ्गमाजङ्गमं   चेदं        जगन्नारायणोभ्दम् ।।
                                    (अनुशासन १४१।१३८)
'समस्त ऋषिगण, पितृगण, देवगण और प्रकृतिके विकाररुप पाँच महाभूत आदि तथा मूल प्रकृति, बुद्धि अहंकार और पञ्चतन्मात्राएँ यह  सम्पूर्णजड-चेतननात्मक जगत् नारायणसे ही उत्पन्न हुआ है।'
५. श्रीविष्णुपुराणमें आता है ----- 
स ईश्वरो व्यष्टिसमष्टिरुपो  व्यक्तस्वरुपोअप्रकटस्वरूपः। 
सर्वेश्वरः  सर्वदृक् सर्वविच्च  समस्तशक्तिःपरमेश्वराख्ययः।। 
'वे ईश्वर ही समष्टि और व्यष्टिरुप हैं, वे ही व्यक्त और अव्यक्तसकवरुप हैं, वे ही सबके स्वामी, सबके साक्षी और सब कुछ  जाननेवाले हैं तथा उन्हींसर्वशक्तिमान को परमेश्वर कहते हैं।'
६. गीता कहती है ---
उत्तमः  पुरुषस्तवन्ययः  परमात्मेत्युदाहृतः। 
यो  लोकत्रयमाविश्य  बिभत्यरव्यय  ईश्वरः।। 
'इन (क्षर-अक्षर) दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकोंमें प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा ---इस प्रकार  कहा गया है।'
अगले भागों में। 
           




    

 




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