Thursday, 30 April 2020

हिंदू -संस्कृतिका स्वरुप

श्रीतुलसीदासजी कहते हैं ••••
यन्मायावशवर्ति  विश्वमखिलं    ब्रह्मादिदेवासुरा 
यत्सत्वादमृषैव  भाति  सकलं  रज्जौ यथाहेभ्रमः। 
यत्पादप्लवमेकमेव  हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां ।।
वन्देऽहं  तमशेषकारणपरं  रामाख्यमीशं   हरिम् ।।
'जिनकी  मायाके  वशीभूत  सम्पूर्ण  विश्व,  ब्रह्मादि  देेेेेवता और  असुर  हैं,  
जिनकी  सत्तासे  रस्सीमें  सर्पके  भ्रमकी  भाँति  यह  सारा  दृश्य  जगत्  सत्य  ही  प्रतीत  होता  है  और  जिनके  श्रीचरण  ही  भवसागरसे  तरनेकी  इच्छावालोंके  लिये  एकमात्र  नौका  हैं,  उन  समस्त   कारणोंसे  परे  (सब कारणोंके कारण और सबसे श्रेष्ठ)  राम  कहानेवाले भगवान्  श्रीहरिकी  मैं  वन्दना  करता  हूँ।' 

   तथा अरण्यकाण्डमें  श्रीलक्ष्मणजीके  पूछनेपर  भगवान्  स्वयं कहते हैं ••••
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ईश्वरः       सर्वभूतानां      हृद्देशेऽर्जुन      तिष्ठति। 
भ्रामयन्    सर्वभूतानि      यन्त्रारुढानि    मायया।। 
                                                   (१८ । ६२)
'अर्जुन  !  शरीररुप  यन्तमें  आरुढ़  हुए  सम्पूर्ण  प्राणियोंको  अन्तर्यामी  परमेश्वर  अपनी  मायासे  उनके  कर्मोंकि  अनुसार  भ्रमण  करता  हुआ  सब  प्राणियोंके  हृदयमें  स्थित  है।'
७. श्रीभागवतकार कहते हैं ••••
      जन्माद्यस्य  यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
     तेने  ब्रह्म   हृदा   य   आदिकवये  मुह्यान्ति युत्सूरयः।    तेजोवखरिमृदां  यथा  विनिमयो  यत्र    त्रिसर्गोऽमृषा 
   धाम्ना  स्वेन  सदा  निरस्तकुहं  सत्यं  परं     धीमहि ।।
                                                     (१ । १ । १)
'जिससे इस जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार होता है, जो अन्वय और व्यतिरेक ••••दोनों प्रकारसे सत्य है अर्थात् जिसकी सत्तासे ही जगत् की सत्ता है, परन्तु जगत् के न रहनेपर भी जिसका अस्तित्व अक्षुण्ण रहता है, जो जगत् के सम्पूर्ण पदार्थोंमें व्याप्त और सर्वज्ञ है तथा अखण्ड, अबाध, ज्ञानसम्पन्न होनेके कारण जो स्वयंप्रकाश है, जिसके सम्बन्धमें बड़े - बड़े  ऋषि -मुनि  मोहित हो जाते हैं,• जिसके सत्य - स्वरुपमें यह त्रिगुणमयी सृष्टि उसकी सत्तासे सत्य है, परन्तु भिन्न - भिन्न नामरुपोंकी  दृष्टिसे  असत्य भी है •••• जैसे तेजोमय सूर्यकी किरणोंसे काँच आदि मृत्तिकाके विकारोंमें जलकी और जलमें स्थलकी भ्रान्ति हो जाया करती है, जिसके अपने ज्ञानमय प्रकाशसे 
माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव। 
बंध  मोच्छ  प्रद  सर्बपर  माया   प्रेरक  सीव।। 
'जो  मायाको, ईश्वरको और अपने स्वरूपको नहीं जानता, वह जीव है•, और जो कर्मानुसार बन्धन और मोक्ष देनेवाला, सबसे परे, माया प्रेरक और कल्याणमय है, वह ईश्वर है।' 
जो ईश्वरको नहीं माननेवाले नास्तिक हैं, उन्होंने अनेक प्रकारके झूठे तर्क-वितर्क करके बहुत -से अनजान लोगोंको मोहित कर दिया है, जिससे वे बेचारे भोले -भाले  लोग भ्रममें पड़कर ईश्वरके सम्बन्धमें भी अनेक प्रकारके शङ्का-समाधान करने लगे। इससे हमारी हिंदू-संस्कृतिटका ह्लास होने लगा, जो हिंदुस्तानके पतनमें बहुत बड़ा कारण सिद्ध हुआ।  ईश्वरको माननेमें लाभ और न माननेमें अनेक हानियाँ प्रत्यक्ष ही हैं।
 ईश्वरको माननेवाला मनुष्य ईश्वरके भयसे पाप नहीं  करता और ईश्वरपर निर्भर हो जाता है, जिससे उसके हृदयमें निर्भयता, धीरता, वीरता, गम्भीरता आदि अनेक गुण आ जाते हैं। ईश्वरके चिन्तनसे अनायास ही सारे दुर्गुण - दुराचारोंका नाश होकर उसमें पूर्णतया सदगुण - सदाचार आ जाते हैं तथा परम शान्ति और परम आनन्दकी प्राप्ति होकर मरने पर उत्तम गति मिलती है। 
ईश्वरको न माननेवाले नास्तिकके हृदयमें दुर्गुण - दुराचार घर कर लेते हैं। उसे ईश्वरका तो भय रहता नहीं, फिर वह क्यों पाप करनेसे रुकेगा ? उसे पापोंके फलस्वरूप  दुःखोंकी प्राप्ति होने पर चिन्ता, शोक, भय प्राप्त होते हैं और मरनेपर उसकी बड़ी दुर्गति होती है। तर्कसे भी यह बात सिद्ध है। आप कहते हैं, 'ईश्वर नहीं है' और मैं कहता हूँ 'ईश्वर है' थोड़ी देर के लिए मान लीजीये, आपकी बात ही सत्य हो, तो ऐसी परिस्थितिमें यदि ईश्वर नहीं है और मैंने भूलसे ईश्वरको मान लिया तो इससे मुझे क्या हानी होगी ? आपकी मान्यताके अनुसार वास्तवमें ईश्वर है ही नहीं, तो चाहे जितना ही उसकी प्राप्तिके लिए प्रयत्न किया जाय, न वह आपको मिलेगा न मुझे ही। यह तो हो ही नहीं सकता कि मुझे ईश्वर न मिले और आपको मिल जाय,• जब ईश्वर है ही नहीं, तब मिलेगा क्या ? हमने जो भूलसे ईश्वरको मान लिया, उसके फलस्वरूप हमें कोई दण्ड तो होना ही नहीं है। फलतः आप और हम दोनों समान कक्षामें ही रहेंगे। परन्तु थोड़ी देरके लिये मान लें यदि हमारी मान्यता सत्य हो गयी, ईश्वरका वास्तवमें होना प्रमाणित होना प्रमाणित हो गया तो इसके फलस्वरूप यदि हमने शास्त्रानुसार साधन किया तो हमें तो ईश्वरकी प्राप्ति होकर परम शान्ति और परमानन्दकि प्राप्ति हो जायगी और आप इन सबसे वङ्चित रहेंगे। इतना ही नहीं, इसके फलस्वरूप आपको घोर नरकोंकी प्राप्ति होगी और भारी दुःखोंका सामना करना पड़ेगा। इस तर्कके अनुसार भी ईश्वरको मानना ही सब प्रकारसे श्रेयस्कर है। 
अन्य युक्तियोंसे भी ईश्वरका होना सिद्ध है। ईश्वरके बिना किसीका भी काम चलना सम्भव नहीं है। आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि सभी ईश्वरके अस्तीत्वको प्रमाणित कर रहे हैं। ये सभी जिससे उत्पन्न हुए हैं और जिससे संचालित हो रहे हैं, वही ईश्वर है,• क्योंकि बिना किसी कारणके कोई कार्य नहीं हो सकता। अतः इस जगत् का भी तो कोई कारण होना चाहिए। यह सारा जगत् जिससे उत्पन्न हुआ है, वही सबका अभिन्न निमित्तोपादन कारण* 
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माया ••••छल -कपट आदि सदा ही निरस्त रहते हैं, उस परम सत्यस्वरुप परमेश्वरका हम ध्यान करते हैं।'
तथा ••••
यथोर्णनाभिहृदयादूर्णां   संतत्य    वक्त्रतः। 
तया  विहृत्य  भूयस्तां   ग्रसत्येवं  महेश्वरः।। 
                                                       (११।९।२१)
'जिस प्रकार  मकडी़ अपने पेटमेंसे मुखद्वारा तन्तुको निकालकर उसको फैलाती है और उसके साथ विहार करके पुनः निगल जाती है, उसी प्रकार सर्वेश्वर परमात्मा भी (जगत् की रचना करके तथा उसमें विहार करके पुनः अपनेमें उसे लीन कर लेते हैं)।'
*  जिस वस्त्तुसेे जो चीज बनती है, वह उसका उपादान - कारण है और बनानेेेवाला निमित्तकारण ---
जैसे घड़ेका उपादानकारण मिट्टी है और निमित्तकारण कुम्हार है | किंतु संसारके उपादान और निमित्तकारण परमात्मा ही हैं |  जैसे मकड़ी जाला तानती है, तो उस जालेका उपादान कारण भी मकड़ी है और निमित्तकारण भी मकड़ी ही है, उसी प्रकार परमात्मा जगत् के उपादान और निमित्तकारण दोनों हैं और वे उससे अभिन्न हैं |Iampampamsinghchauhan





Monday, 27 April 2020

हिंदू -संस्कृतिका स्वरुप

रामायणमें श्रीरामका आदर्श चरित्र 
श्रीरामचंद्रजीकी सारी ही चेष्टाएँ धर्म, ज्ञान, शिक्षा, गुण, प्रभाव, तत्त्व एवं रहस्यसे भरी हुई हैं | उनका व्यवहार देवता, ऋषि, मुनि, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभीके साथ बहुत ही प्रशंसनीय, अलौकिक और अतुलनीय है | देवता, ऋषि, मुनि और मनुष्योंकी तो बात ही क्या ----जाम्बवान, सुग्रीव,हनुमान् आदि रीछ -वानर,• जटायु आदि पक्षी तथा विभीषण आदि राक्षसोंके साथ भी उनका ऐसा दयापूर्ण, प्रेमयुक्त  और त्यागमय व्यवहार हुआ है कि जिसे स्मरण करनेसे ही रोमान्च हो आता है |भगवान्  श्रीरामकी कोई भी चेष्टा ऐसी नहीं, जो कल्याणकारीणी न हो |
उन्होंने साक्षात्  पूर्णब्रह्म परमात्मा होते हुए भी मित्रोंके साथ मित्रका-सा, माता-पीताके साथ पुत्रका-सा, स्त्रीके साथ पतिका-सा, भाइयों के साथ भाईका-सा, सेवकोंके साथ स्वामीका-सा, मुनि और ब्रह्मणोंके साथ शिष्यका-सा---- इसी प्रकार सबके साथ यथायोग्य त्यागयुक्त प्रेमपूर्ण व्यवहार किया है | अतः उनके प्रत्येक व्यवहारसे हमलोगोंको शिक्षा लेनी चाहिए | 
श्रीरामचंद्रजीकी राज्यका तो कहना ही क्या है, उसकी तो संसारमें एक कहावत हो गयी है | जहाँ कहीं सबसे बढ़कर सुन्दर शासन होता है, वहाँ 'रामराज्य' की उपमा दी जाती है | श्रीरामके राज्यमें प्रायः सभी मनुष्य परस्पर प्रेम करनेवाले तथा नीति, धर्म, सदाचार और ईश्वरकी भक्तिमें तत्पर रहकर अपने -अपने धर्मका पालन करनेवाले थे |प्रायः सभी उदारचरित और परोपकारी थे |वहाँके प्रायः सभी पुरुष एकनारीव्रती और अधिकांश स्त्रियाँ पतिव्रत-धर्मका पालन करनेवाली  थीं | भगवान्  श्रीरामका इतना  प्रभाव था कि उनके राज्यमें मनुष्योंकी तो बात ही क्या, पशु-पक्षी भी प्रायः परस्पर वैर भुलाकर निर्भय विचरा करते थे | भगवान्  श्रीरामके चरित्र बड़े ही प्रभावोत्पादक और अलौकिक थे | यह हमारे आर्य पुरुषोंका स्वाभाविक ही व्यवहार था | इसी आदर्शको हिंदू -संस्कृति कहते हैं | हमें उसी आर्दशको लक्ष्यमें रखकर उसका अनुकरण  करना चाहिए |
       रामायणमें सीताजीका अनुकरणीय चरित्र 
हिंदू -संस्कृतिके अनुसार  पतिके  साथ  पत्नीको कैसा व्यवहार  करना  चाहिए ---- इसकी  शिक्षा  माताएँ  श्रीसीताके  चरित्रसे  ले  सकती  हैं | जगज्जननी  श्रीसीताका  प्रायः  सारा  जीवन  ही  माता -बहिनोंके लिये  आदर्श  और  शिक्षाप्रद  है |
सास-ससुर, माता-पिता, देवरों  सेवकों  तथा  अन्य  सभी  स्त्री-पुरुषोंके  साथ ---- यहाँतक  कि  दुष्टोंके  साथ  भी  कैसा  व्यवहार  करना  चाहिए ----- इसका सुन्दर  उपदेश  हमें  श्रीसीताजीके  जीवनसे  विशेषरुपसे  मिलता है | इसे  किसी  भी  रामायणमें  देख   सकते  हैं |  श्रीसीताजीके  सभी  क्रियाएँ  कल्याणकारिणी  हैं, अतः माता - बहिनोंको सीताजीके  
जीवनमें जो शिक्षाएँ  भरी  हुई  हैं,  उन्हें  अपने  जीवनमें 
उतारनेकी  कोशिश  करनी  चाहिए |

         रामायणमें   भ्रातृ -प्रेम 

हिंदू -संस्कृतिके  अनुसार  भाइयोंके  साथ  कैसा  प्रेमपूर्ण  व्यवहार  होना  चाहिए, इसकी  शिक्षा  हमें  रामायणमें  श्रीराम,  श्रीलक्ष्मण,  श्रीभरत  एवं  श्रीशत्रुघ्नके  चरित्रोंसे  स्थल-स्थलपर  मिलती  है | उनकी  प्रत्येक  क्रियामें  स्वार्थत्याग  और  प्रेमका   भाव 
झलक  रहा  है |  श्रीराम  और  भरतके  स्वार्थत्यागकी  बात  क्या  कही  जाय ------  है  और  भरतकी   श्रीरामके  राज्याभिषेकके  लिए  |  पाठकगण   किसी  भी  रामायणके  अयोध्याकाण्डमें  इस  विषयको  विस्तारपूर्वक  देख  सकते  हैं |  इसी  प्रकार  द्वखपरयुगमें  युद्दिष्ठिर  आदि  पाण्डववोंका परस्पर  भ्रातृ -प्रेम  आदर्श और  अनुकरणीय  है |  यह  है  हिंदू-संस्कृति  !

                    ईश्वरवाद 

 हिंदू -संस्कृतिमें  ईश्वरवाद  एक  प्रधान  स्थान  रखता  है |  ईश्वरको  केवल  हिंदू  ही  नहीं,  ईसाई  और  मुसलमान  आदि  सभी  मानते  हैं |  जिसे  हम  हरि,  ओम,  ईश्वर,  परमात्मा,  नारायण,  राम,  कृष्ण  आदी   अनेक  नामोंसे  कहते  हैं,  उसे  ही  ईसाई,  गॉड  और   मुसलमान  अल्लाह,  खुदा  आदि  नामोंसे  पुकारते  हैं |  जैसे जल,  पानी,  नीर,  अप,  वाटर  आदि   सभी  जलके   ही  नाम  हैं,  उसीके  पर्याय  हैं -----  वस्तुतः  सबका  अर्थ  एक  जल  है ------ उसी प्रकार ये  सभी  नाम  वस्तुतः  एक  ही  ईश्वरके  हैं | 
हमारे  श्रुति,१।  स्मृति, २ दर्शन, ३ इतिहास, ४   पुराण, ५  आदि  शास्त्रोंमें  तो 

१. श्रुति कहती है ------
ईशा  वास्यमिदँ      सर्वं   यत्किञ्च  जगत्यां  जगत्  |
                                                    (यजुर्वेद ४०।१)
'अखिल ब्रह्माण्डमें  जो  कुछ  भी  जड-चेतनस्वरुप  जगत्  है,  वह  समस्त ईश्वरसे व्याप्त है |'
२. मनुजी  कहते  हैं ----
प्रशासितारं                    सर्वेषामणीयांसमणोरपि।    
रुक्माभं          स्वप्नधीगम्यं   विद्यात्  तं  पुरुषं  परम्।। 
एष  सर्वाणि      भूतानि   पञ्चभिव्यारप्य    मूर्तिभिः। 
जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं            संसारयति        चक्रवत् ।।
                                    (मनु० १२। १२२, १२४)

'जो सूक्षमसे  भी  अतिसूक्ष्म  और  सबका  भली   प्रकार  शासश  करनेवाला  है,  उस  परम   पुरुष   परमेश्वरको  जानना  चाहिये।  यही  सम्पूर्ण  प्राणियोंको  पञ्चभूतरुपी  पाँच  मूर्तियोंके  द्वारा  व्याप्त  किये  हुए है  तथा  जन्म, वृद्धि  और  क्षयके  द्वारा निरन्तर समस्त प्राणियोंको चक्रकी भाँति घुमा रहा है।' 
३.  महर्षि  वेदव्यासजी  कहते हैं -----
              जन्माद्यस्य  यतः  ।
                                                  (ब्रह्मसूत्र  १। २)
'इस संसासारकी उत्पत्ति, स्थिति, संहार आदि जिससे होते हैं, वह ईश्वर है।' महर्षि पतञ्चलि  कहते  हैं -----
ईश्वरका  अस्तित्व  पद-पदपर अङ्कित है  तथा  
गीता६, भागवत७, रामायणकी तो  बात ही क्या है ----
ये  तो ईश्वरवादके प्रधान आदर्श  ग्रन्थ हैं  ही। 
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः  पुरुषविशेष   ईश्वरः। 
                                                       (योग०१।२४) 
'क्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश),
कर्म (पाप-पुण्य), कर्मोंकि फल (जाति, आयु, भोग) तथा वासनाओंसे रहित जो पुरुषोंमें विशेष है, वह ईश्वर है।'
                                                       (योग० १।२५)
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्। 
'सर्वज्ञताका बीज (कारण) अर्थात् सम्यक् ज्ञान उस परमेश्वरमें सबसे बढ़कर है, उससे बढ़कर किसीमें नहीं है।'
पूर्वेषामपि  गुरुः     कालेनानवच्छेदात्। (योग० १ ।२६)
'वह ईश्वर ब्रह्मादिकोंको भी शिक्षा देनेवाला और सबसे बड़ा है,• क्योंकि उसका कालके द्वारा अन्त नही होता।'
४. महाभारतमें आया है -----
ऋषयः  पितरो   देवा   महाभूतानि  धातवः। 
जङ्गमाजङ्गमं   चेदं        जगन्नारायणोभ्दम् ।।
                                    (अनुशासन १४१।१३८)
'समस्त ऋषिगण, पितृगण, देवगण और प्रकृतिके विकाररुप पाँच महाभूत आदि तथा मूल प्रकृति, बुद्धि अहंकार और पञ्चतन्मात्राएँ यह  सम्पूर्णजड-चेतननात्मक जगत् नारायणसे ही उत्पन्न हुआ है।'
५. श्रीविष्णुपुराणमें आता है ----- 
स ईश्वरो व्यष्टिसमष्टिरुपो  व्यक्तस्वरुपोअप्रकटस्वरूपः। 
सर्वेश्वरः  सर्वदृक् सर्वविच्च  समस्तशक्तिःपरमेश्वराख्ययः।। 
'वे ईश्वर ही समष्टि और व्यष्टिरुप हैं, वे ही व्यक्त और अव्यक्तसकवरुप हैं, वे ही सबके स्वामी, सबके साक्षी और सब कुछ  जाननेवाले हैं तथा उन्हींसर्वशक्तिमान को परमेश्वर कहते हैं।'
६. गीता कहती है ---
उत्तमः  पुरुषस्तवन्ययः  परमात्मेत्युदाहृतः। 
यो  लोकत्रयमाविश्य  बिभत्यरव्यय  ईश्वरः।। 
'इन (क्षर-अक्षर) दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकोंमें प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा ---इस प्रकार  कहा गया है।'
अगले भागों में। 
           




    

 




Sunday, 26 April 2020

ॐ ।। श्रीपरमात्मने नमः।। महत्वपूर्ण शिक्षा हिंदू -संस्कृतिका स्वरूप हिंदू -संस्कृति और रामायण

हिंदू -संस्कृतिके स्वरुपको बतलानेके  लिए रामायण एक महान् आदर्श ग्रन्थ है। उसमें हिंदू -संस्कृतिका स्वरूप स्थल -स्थलपर भरा है। हिमालयका 'हि' और सिंन्धु (समुद्र) का 'न्धु' लेकर 'हिन्धु' शब्द बना है। उसीका अपभ्रंश 'हिंदू' शब्द है। हिमालयसे समुद्रतकके स्थानका नाम है हिंदुस्थान और उसमें बसनेवाली जातिका नाम हिंदू है। हिंदूजातिका ही दूसरा नाम है ---आर्यजाति, श्रेष्ठजाति। इस जातिका चाल-चलन, रहन-सहन, आहार-व्यवहार, आदि जो स्वाभाविक कल्याणमय आचरण है, उसका नाम है 'हिंदू-संस्कृति'। आर्य पुरुषोंकी उक्त संस्कृतिको सदाचार कहा जाता है। उनका चाल-चलन, आहार-विहार, खान-पान, आदि प्रत्येक आचरण श्रुति-स्मृति-विहित होनेसे आत्माका कल्याण करनेवाला है। इस लोक और परलोकमें कल्याण करनेवाला होनेके कारण इस सदाचारको ही 'हिंदु-धर्म' * कहते हैं। यह अनादि कालसे चला आ रहा है, इसलिये इसीको 'सनातन-धर्म' कहते हैं। मनुजीका वचन है ----
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। 
एतच्चतुरर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।। 
                                                                (२।१३)
'वेद, स्मृति, सत्पुरुषोंका आचरण तथा अपने आत्माका प्रिय (हित) करनेवाला कार्य ---- इस तरह चारकार यह धर्मका साक्षात् लक्षण कहा गया है।'
यह सनातनधर्म ईश्वरका कानून है और सदा ईश्वरमें निवास करता है। भगवान् ने गीतामें कहा है ---
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम। 
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्षवाकवेअब्रवीत्।। 
'मैंने इस अविनाशी योगको सूर्यसे कहा था, सूर्यने अपने पुत्र वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र राजा इक्षवाकुसे कहा।'
तथा यह प्रलयके समय ईश्वरमें ही समा जाता है। इसलिये ईश्वर ही इसकी प्रतिष्ठा हैं। भगवान् ने स्वयं कहा है ---
ब्रह्मणो  हि   प्रतिष्ठाहममृतस्यैकान्तिकस्य  च। 
शाश्वतस्य  च   धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य   च।। 
                                                      (गीता १४।२७)

'क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्य धर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका आश्रय मैं हूँ।'
    अतः इस शाश्वत धर्मको ईश्वरका रूप ही कहा जाता है। यह सदासे है और सदा रहेगा, इसलिये इसका नाम 'सनातन-धर्म' है। 
यह कभी प्रकटरुपसे रहता है, कभी अप्रकटरुपसे,• किंतु इसका कभी विनाश नहीं होता। ईश्वरके अवतारकी भाँति इसका केवल प्रादुर्भाव और तिरोभाव होता है। 
वाल्मीकिय और अध्यात्मरामायणके समस्त श्लोक तथा तुलसीकृत रामचरितमानसके सारे दोहे, चौपाई, छन्द आदि सभी इसी शाश्वत धर्मरुप हिंदू-संस्कृतिका दिग्दर्शन करा रहे हैं। उनमें भी श्रीराम और सीताके आदर्श चरित्र एवं सभी भाइयोंका परस्पर भ्रातृप्रेम हिंदू-संस्कृतिके प्रधान निदर्शक हैं ।