Saturday, 2 May 2020

हिंदू -संस्कृतिका स्वरुप

                     परलोकवाद 

बहुत - से आदमी यह शङ्का करते हैं 'मरनेके बाद आत्मा रहता है या नहीं, किये हुए कर्मोंका फल कर्ताको परलोकमें मिलता है या नहीं, मृत व्यक्तिके लिये दिया हुआ पदार्थ उसे मिलता है या नहीं और जो मृत व्यक्ति मुक्त हो गया है, उसके प्रति दिया हुआ पदार्थ किसको मिलता है  ?' इन प्रश्नोंका यह है कि 
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१- गीतामें कहा है --------
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वोरोऽपि सन्। 
प्रकृतिं     स्वामधिष्ठाय     संभवाम्यात्ममायया ।।
यदा  यदा  हि   धर्मस्य    ग्लानिर्भवति  भारत  ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य  तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्  ।।
परित्राणाय  साधूनां  विनाशाय  च  दुष्कृताम्  ।
धर्मसंस्थापनार्थाय      संभवामि    युगे  युगे    ।।
                                               (४।६-८)
'मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरुप  होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतितो अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ। हे भारत !  जब - जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब -तब ही मैं अपने रुपको रचता हूँ अर्थात्  साकाररूपसे लोगोंके सम्मुख प्रकट होता हूँ। श्रेष्ठ पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता है।' 
२- भागवतमें भगवान् श्रीकृष्ण देवकीसे कहते हैं ------
अदृष्टवान्यतमं लोके शीलौदार्यगुणैः समम्  ।
अहं   सुतो   वामभवं पृश्रीगर्भ  इति  श्रुतः   ।।
तयोर्वां    पुनरेवाहमदित्यामास  कश्यपात्   ।
उपेंद्र  इति  विख्यातो  वामनत्वाच्च वामनः  ।।तृतीयेऽस्मिन् भवेऽहं वै तेनैव वयुषाथ वाम्  ।
जातो भूयस्तयोरेव सत्य मे व्याहृतं  सति     ।।
                                             (१०।३।४१।४३)

'संसारमें शील, उदारता आदि सदगुणोंमें अपने सदृश दूसरेको न देखकर मैं स्वयं ही आप दोनोंका पुत्र होकर पहले 'पृश्रीगर्भ' के नामसे विख्यात हुआ था। उसके बाद जब आप दोनों उस समय मेरा शरीर छोटा होनैके कारण मेरा दूसरा नाम 'वामन' हुआ था। इस तीसरे अवतारमें अब मैं ही उसी शरीरसे आप दोनोंके यहाँ पुनः उत्पन्न हुआ हूँ। हे सती ! मैंने यह आपसे सत्य कहा है।' मरनेपर आत्मा अवश्य रहता है तथा किये हुए कर्मोंका फल कर्ताको अवश्यमे मिलता है। वह इस लोकमें भी मिल जाता है और शेष बचा हुआ परलोकमें मिलता है। मृत व्यक्तिके लिये जो कुछ दिया जाता है, वह सब उसे प्राप्त होता है•, किंतु जो मृत व्यक्ति मुक्त हो गया है, उसके प्रति दिया हुआ कर्ताके संचित कर्मरुप कोषमें जमा होता है। 
(क)  कठोपनिषद् में यमराजके प्रति नचिकेताने भी यही प्रश्न किया था कि मरनेपर आत्मा रहता है या नहीं ? यमराजने यही उत्तर दिया कि अवश्य रहता है। 
       यमराज कहते हैं -------
                न साम्परायः प्रतिभाति    बालं 
                      प्रमाद्यन्तं  वित्तमोहेन मूढम्। 
         अयं लोको  नास्ति  पर  इति मानी 
               पुनः        पुनर्वशमापद्यते       मे।। 
                                            (कठ० १ । २ ।६)
'जो धनके मोहसे मोहित हो रहा है ऐसे प्रमादी मूढ़, अविवेकी पुरुषको परलोकमें श्रद्धा नहीं होती। यह लोक ही है, परलोक नहीं है ------इस प्रकार माननेवाला वह मूढ़ मुझ मृत्युके वशमें बार -बार पड़ता है अर्थात् पुनः -पुनः  जन्म-मृत्युको प्राप्त होता है। '
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्। 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न  हन्यते हन्यमाने  शरीरे।। 
                                                  (कठ० १।२।१८)
'नित्य ज्ञानस्वरुप आत्मा न तो जन्मता है और न मरता ही है। यह न तो स्वयं किसीसे हुआ है, न इससे कोई भी हुआ है। अर्थात् यह न तो किसीका कार्य है और न कारण ही है। शरीरके नाश होनेपर भी इसका नाश नहीं होता।' 
गीतामें भी भगवान् कहते हैं -----
न त्वेवाहं  जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। 
न चैव न भविष्यामः  सर्वे  वयमतः परम्    ।।
'न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमेें नहीं था याा तूू नहीं  था अथवा ये राजालोग नहीं थेे और न ऐसा ही है कि इससे आगेे हम सब नहीं रहेेंगे।' 
वाल्मीकीय रामायणमें युद्धके बाद दशरथजीका आना तथा श्रीराम और लक्ष्मण आदिसे वार्तालाप करना परलोकका जीता-जागता प्रमाण है, इसके लिये वाल्मीकीय रामायण युद्धकाण्ड, १२१वाँ सर्ग देखिये। 
अन्यान्य शास्त्रोंमें भी जगह -जगह इसके अनेक प्रमाण प्राप्त होते हैं। 
हिंदू -जातिके हृदयमें यह संस्कार स्वभाविक ही अङ्कित है। यह युक्तिसंगत भी है। जब मनुष्य जन्मता है, तब उसके जाति, आयु, भोग और स्वभाव भिन्न -भिन्न होते हैं तथा मनुष्यका जन्मते ही रोना, हँसना, कम्पित होना, सोना, माताके स्तनोंसे स्वयं ही दूधको आकर्षित करना आदि उसके पुर्नजन्मके अभ्यासके द्योतक होनेसे पूर्वजन्मको सिद्ध करते हैं। इसलिये आत्मा नित्य है। शरीरके नाश होनेपर भी उसका नाश नहीं होता। 
गीतामें भी कहा है ------
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। 
                                               (२।२०)
'यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला है •,
 क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।'
(ख) श्रीरामचरितमानसमें दशरथजीने कहा है -------
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। 
ईस   देइ   फलु   हृदयँ   बिचारी ।।
करइ  जो  करम  पाव  फल सोई।
निगम  नीति अस कह सबु कोई ।।
वाल्मीकीय रामायणमें कहा है ------
अवश्यमेव  लभते  फलं  पापस्य कर्मणः।  
भर्तः पर्यागते काले कर्ता नास्तयत्र संशयः।। 
शुभकृच्छुभमाप्नोति   पापकृत्   पापमश्रुते।
                                (युद्ध। १११।२५-२६)
'स्वामिन् ! इसमें संदेह नहीं कि समय आनेपर कर्ताको उसके पाप-कर्मका फल अवश्य ही मिलता है। शुभ कर्म करनेवालेको उत्तम फलकी प्राप्ति होती है और पापीको पापका फल दुःख भोगना पड़ता है।'
मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे उसका वैसा ही फल प्राप्त होता है -----
यह बात गीता आदि शास्त्रोंमें भलीभाँति बतलायी गयी है। * 
     यह युक्तियुक्त भी है। मनुष्य जैसे कर्म करता है, उसके अनुसार ही उसके हृदयमें संस्कार जमते हैं। फिर उनके अनुसार ही उसके अन्तःकरणकी वृत्ति बनती है। 
वृत्तिके अनुसार ही अन्तकालमें स्मृति होती है और स्मृतिके अनुसार ही भावी जन्म होता है। इन कर्मोंकि भेदके कारण ही मनुष्यके जाति, आयु, भोग और स्वभाव और भोगकी भिन्नता होती है। अर्थात् सब प्राणियोंमें जो बुद्धि, स्वभाव और भोगकी भिन्नता देखी जाती है, इसका मूल कारण कर्म ही है। 
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गीता कहती है --------
पुरुषः प्रकृतिस्थो  हि  भुङक्ते  प्रकृतिजान् गुणान्। 
कारणं          गुणसङ्गोऽस्य     सदसद्योनिजन्मसु ।।
                                                         (१३।२९)
'प्रकृतिमें स्थित ही पुरुष प्रकृतिसे उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थोंको भोगता है और इन गुणोंका सङ्ग ही इस जीवात्माके अच्छी -बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है।'
कर्मणः  सुकृतस्याहुः  सात्विकं निर्मलं फलम्। 
रजसस्तु  फलं   दुःखमज्ञानं   तमसः   फलम् ।।
                                                     (१४।१६)
'श्रेष्ठ कर्मका तो सात्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है। राजस कर्मका फल दुःख एवं तामस कर्मका फल अज्ञान कहा है।'
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्। 
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।। 
'कर्मफलका त्याग न करनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ ------ऐसे तीन प्रकारका फल मरनेके पश्चात् अवश्य होता है, किंतु कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका फल किसी कालमें भी नहीं होता।'
अतः कर्मफल प्राप्त होनेकी बात बिलकुल युक्तिसंगत है और प्रत्यक्ष देखनेमें भी आति है। 
(ग)  श्राद्ध -तर्पणका उल्लेख रामायणमें स्थान -स्थानपर आया है। श्रीरामचरितमानसमें महाराज दशरथकी मृत्यु होनेपर भरतके द्वारा उनकी यथोचित ऊर्ध्वक्रिया करनेका उल्लेख मिलता है। यथा -------
नृप   तनु   बेद  बिदित  अन्हवावा। 
परम   बिचित्र   बिमानु     बनावा ।।
चंदन   अगर   भार   बहु   त्रआए ।
अमित   अनेक   सुगंध    सुहाऐ   ।।
सरजु   तीर   रचि    चिता   बनाई ।
जनु     सुरपुर     सोपान    सुहाई  ।।                       एहि बिधी दाह क्रिया सब कीन्हि ।
बिधिवत  न्हाइ  तिलांजलि  दीन्ही ।।
सोधि   सुमृति   सब   बेद   पुराना ।
कीन्ह   भरत    दसगात   बिधाना  ।।
जहँ  जस  मुनिबर आयसु  दीन्हा   ।
तहँ तस सहस  भाँति सबु कीन्हा    ।।
भए    बिसुद्ध     दिए  सब  दाना    ।
धेनु   बाजि    गज     बाहन नाना   ।।
श्रीरामचंद्रजी महाराजने भी पिताकी मृत्युका संवाद सुनते ही मन्दाकिनी -तीरपर जाकर तर्पण किया एवं स्वयं जैसा भोजन किया करते थे, उसीके पिण्ड बनाकर 
दशरथजीके निमित्त दिये --------
ततो मन्दाकिनीं गत्वा स्नात्वा ते वीतकल्मषाः।। 
राज्ञे   ददुर्जलं  तत्र  सर्वे   ते     जलकांक्षिणे   ।
पिण्डन्  निर्वापयामास  रामो  लक्ष्मणसंयुतः   ।।
इङ्गदीफलपिण्याकरचितान्     मधुसम्पलुतान्। 
वयं     यदन्नाः    पितरस्तदन्नाः   स्मृतिनोदिता 
                       (अध्यात्म० अयोध्या० १।१७----१२)
'फिर सब लोग मन्दाकिनीपर जाकर स्नान करके पवित्र हुए। वहाँ उन सबने जलाकांक्षी महाराज दशरथको जलाञ्जलि दी तथा लक्ष्मणजीके सहित श्रीरामचंद्रजीने पिण्ड दिये। जो हमारा अन्न है, वही हमारे पितरोंको प्रिय होगा ------यही स्मृतिकी आज्ञा है, यों कह उन्होंने इंगुदी -फलकी पीठीके पिण्ड बना उनपर मधु डालकर उन्हें प्रदान किया।'
वाल्मीकीय रामायणमें भी इसी भावके द्योतक श्लोक मिलते हैं। रामायणके सिवा श्राद्दका प्रकरण गीता १,मनुस्मृति२ आदि सभी शास्त्रोंमें पाया जाता है। 
यह बात युक्तिसंगत भी है। जो आदमी जिस व्यक्तिके नामसे बैंकमें रुपये जमा करता है, उसी व्यक्तिके नाम रुपये जमा हो जाते हैं और जिसके नामसे जमा होते हैं, उसीको मिलते हैं, दूसरेको नहीं। उन रपयोंके बदलेमें उसे जो आवश्यकता होती है, वही चीज उतनी कीमतकी मिल जाती है। इसी प्रकार पितरोंको नामसे किया हुआ पिण्ड, तर्पण, ब्राह्मणभोजन आदि कर्मका जितना मूल्य आँका जाता है, उतना ही फल उस प्राणीको वह जिस योनिमें होता है वहीं आवश्यकतानुसार प्राप्त हो जाता है अर्थात् यदि वह प्राणी गाय है तो उसे चारेके रुपमें, देवता है तो अमृतके रुपमें, मनुष्य है तो अन्नके रुपमें और बंदर आदि है तो फल आदिके रुपमें ही मुल्यकी वस्तु मिल जाती है। 
यदि कहें कि जीवित व्यक्तिके लिये भी कोई यज्ञ, दान, अनुष्ठान, व्रत, उपवास आदि कर्म करता है तो क्या वह उसे भी मिलता है, 
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१.गीतामें कहा है ------
संकरो  नरकायैव  कुलन्घानां   कुलस्य    च। 
पतन्ति  पितरो  ह्योषां  लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।। 
                                         (१ । ४२)
'वर्णसंकर कुलघातियोंको और कुलको नरकमें ले जानेके लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जलकी क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित इनके पितरलोग भी अधोगतिको प्राप्त होते हैं।'
२. मनुजी कहते हैं ------
यद्यद्   ददाति   विधिवत्  सम्यक्  श्रद्धासमन्वितः। 
तत्तत्      पितृणां  भवति         परत्रानन्तमक्षयम् ।।
'मनुष्य श्रद्दावान्  होकर  जो -जो पदार्थ अच्छी तरह विधिपूर्वक पितरोंको देता है, वह -वह परलोकमें पितरोंको अनन्त और अक्षयरुपमें प्राप्त होता है।'
तो इसका उत्तर यह है कि अवश्य उसे मिलता है। नहीं तो, फिर यजमानके लिये जो ब्राह्मण यज्ञ, तप अनुष्ठान, पूजा, पाठ, आदि करता है, वह किसको मिलेगा ? 
न्यायतः वह यजमानको ही मिलेगा, कर्म कर्ताको ही मिलता है। जैसे किसी आदमीको रजिस्ट्री चिट्ठी या बीमा भेजी जाती है और जिसको भेजी जाय, वह आदमी मर गया हो तो फिर वह लौटकर भेजनेवालेको ही वापस मिल जाती है, उसी प्रकार इस इस विषयमें भी समझना चाहिये। 
                    ये सब संस्कार हिंदुओंके रग -रगमें भरे हुए हैं।  इन्हींको लेकर प्रायः सभी हिंदू सदासे श्राद्ध -तर्पण आदि करते आ रहे हैं। यह है हिंदु -संस्कृति !'मनुष्यकी उत्पत्तिके समयमें जो क्लेश माता -पिता सहते हैं, उसका बदला सैकड़ों वर्षोंमें भी सेवादि करके नहीं चुकाया जा सकता।' Pampamsinghchauhan
       
     


Friday, 1 May 2020

हिंदू -संस्कृतिका स्वरुप

* जिस वस्तुसे जो चीज बनती है, वह उसका उपादान -कारण है और बनानेवाला निमित्तकारण ---
जैसे घड़ेका उपादानकारण मिट्टी है और निमित्तकारण कुम्हार है। किंतु संसारके उपादान और निमित्तकारण परमात्मा ही हैं। जैसे मकड़ी जाला तानती है, तो उस जालेका उपादान कारण भी मकड़ी है और निमित्तकारण भी मकड़ी ही है, उसी प्रकार परमात्मा जगत् के उपादान और निमित्तकारण दोनों हैं और वे उससे अभिन्न हैं। 
एकमात्र परमात्मा है।  जो इस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाला तथा पाप -पुण्यके अनुसार फलदाता और सबको नियममें रखकर यथायोग्य संचालन करनेवाला है, वही ईश्वर है। संसारमें बड़े -बड़े यन्त्र और कारखाने हैं•, किंतु बिना किसी बुद्धिमान् चेतन संचालकके उनका चलना सम्भव नहीं, बल्कि बिना उसके वे नष्ट - भ्रष्ट हो जाते हैं। 
             आपकी दृष्टिमें जो कुछ देखने - सुननेमें आता है, वह सब जिससे संचालित है, वह ईश्वर है। वह है चेतन •, क्योंकि जो जड प्रकृत (नेचर) है, उसमें ज्ञान न होनेके कारण वह न तो सबको यथायोग्य स्थानमें स्थापित ही कर सकती है और न उसका संचालन ही कर सकती है•,
किंतु इस संसारके पिछे जो शक्ति है, उसका कार्य देखनेसे मालूम होता है कि वह बहुत विलक्षण अतिशय ज्ञानमयी शक्ति है। जिससे समस्त संसारका संचालन नियमानुसार हो रहा है, उसकी इस विलक्षण कुशलताको तो देखिये। ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म -से -सूक्ष्म प्राणी होते हैं, जो सूक्ष्मतासे देखनेसे कागजोंपर भी कभी - कभी लक्ष्यमें आते हैं। वे सफेद, लाल आदि अनेक रंगोंके होते हैं। और पोस्ताके दानेकी अपेक्षा भी सूक्ष्म होते हैं। उन्हें कोई 'पोस्तिया जानवर' भी कहते हैं। उनके इतने सूक्ष्म शरीरमें भी सब यन्त्र होते हैं। चलनेके लिये पैर और उड़नेके लिये पँखें तो रहती ही हैं•, मन, बुद्धि, भी होती हैं। इनके अलावा शरीरके भीतरके बहुत -से यन्त्र भी उसी जन्तुके अंदर होते हैं। उनमें सूक्ष्म जीव होते हैं,जो देखनेमें भी नहीं आते। अब विचारिये, उसका निर्माता कितना बुद्धिकुशल होना चाहिये। यह काम जड प्रकृतिसे सम्भव नहीं। 
मनुष्योंकी प्रकृति, बुद्धि, इन्द्रियाँ भिन्न -भिन्न होनेसे उनके आचरण भी भिन्न - भिन्न होते हैं। ऐसे उन विभिन्न मनुष्योंके पुण्य -पापरुप आचरणोंके अनुसार यथायोग्य सुख -दुःखादिका भुगताना भी जड प्रकृतिका काम नहीं हो सकता। अतः उसका फलदाता भी कोई बुद्धिका महान्  सागर चेतन ही होना चाहिये और वह है एकमात्र परमात्मा। 
देखिये, संसारमें ऐसा कोई भी यन्त्र देखनेमें नहीं आता जिसका काम बिना सँभालके चल सके। उदाहरणार्थ कपड़ेकी या गंजीकी कल है,° यदि  उसका संचालक कोई चेतन पुरुष नहीं होगा तो न कपड़ा ही तैयार होगा और न गंजी ही,° क्योंकि तार टूटनेपर संचालकके बिना उसे कौन जोडे़गा। बल्कि यन्त्र ही नष्ट हो जायेगा। बड़े -से बड़ा यन्त्र रेलगाड़ी है। उसके इंजन, पटरी आदिकी सार -सँभाल-मरम्मत आदि नहीं होगी तो उसका चलना सम्भव नहीं। किसी बुद्धिशाली चेतन संचालक, संयोजकके बिना एक दिन भी काम नहीं चलेगा और सब नष्ट-भ्रष्ट हो सकता है। इसी प्रकार यह सारा जगच्चक्र चल रहा है। यदि इसका निर्माता, संयोजक, संचालक तथा सँभाल -मरम्मत करनेवाला कोई बुद्धिशाली चेतन न हो तो इसकी भी वही दशा होगी। 
       हम, आप कोई प्राणी अपनी सत्तामें संदेह नहीं करते। हम हैं, साथ ही हम चेतन हैं,° किंतु ज्ञानके लिये इच्छुक भी हैं। हमको और अधिक ज्ञान मिले, इस प्रयत्नमें रहते हैं,° सभी ज्ञानके साथ सुख चाहते हैं और किसी -न -किसीको अपनेसे अधिक सुखी मानते हैं। इस प्रकार सत्ता, ज्ञान और सुख----- सत्, चित, आनन्दको हम मानते तो हैं और यह भी देखते हैं कि जीवोंमें ज्ञान और आनन्द कहीं पूर्ण नहीं, सब उसको पानेके ही स्रयत्नमें हैं। जिसे सभी विद्वान् पाना चाहते हैं, वह नहीं है ------ऐसा सम्भव नहीं। अतः जहाँ सत्ता, ज्ञान और आनन्द तीनों पूर्णरुपसे हैं, वही तो सच्चिदानन्द ईश्वर है। जडमें तो केवल सत्ता ही प्रत्यक्ष प्रतीत होती है, चेतनता और आनन्द नहीं और सबसे छोटे प्राणी जो दूरबीनसे भी कठिनतासे दीखते हैं, उनमें भी सत्ताके साथ ज्ञान रहता है। वे अपने आहारको पहचानतेसे दीखते हैं, उनमें भी सत्ता के साथ ज्ञान रहता है। वेअपने आहारको पहचानते हैं, वे भी सुख चाहते हैं,° क्योंकि शत्रुसे डरकर भागते उन्हें भी देखा गया है। यह चेतना, ज्ञान और सुखकी इच्छा जब जडमें नहीं है, तब कहीं माननी पडे़गी। जहाँ वह है, वहीं परमात्मा है। वह चेतन ही इस जडका संचालक है। वही सर्वेश्वर है। 
   इससे यही निर्णय हुआ कि इसका उत्पादक, निर्माता, संचालक, रक्षक------जो कोई है, वही चेतन परमात्मा है। यह हिंदुओंकी अनुभवयुक्त मान्यता सदासे चली आ रही है -----इसीको 'हिंदू -संस्कृति' कहते हैं। 
                         अवतारवाद 
भगवान्  श्रीराम, श्रीकृष्ण,साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा हैं, यह विश्वास हिंदू -जातियोंमें प्रायः सदासे ही चला आ रहा है। यह युक्तियुक्त और उचित ही है। निर्गुण -निराकाररुप सच्चिदाननकदघन परमात्मा ही सगुण -साकाररुपमें प्रकट होते हैं, जैसे आकाशमें परमाणुरुपसे स्थित जल ही बादलके रुपमें आकार फिर जल और बर्फके रुपमें प्रकट होकर बरसने लगता है। सर्गके आदीमें सारे पदार्थ भी निराकारसे साकार बनते हैं ------
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्तयहरागमे। 
                                              (गीता ८। १८)
उस निराकाररुपब्रहह्माके सूक्ष्म शरीरसे ही सारी स्थूल व्यक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार वह सच्चिदाननकदघन परमात्मा स्वयं ही निराकार -रुपसे साकार -रुपको धारण करता है। इसीका नाम अवतार लेना है। तुलसीकृत रामायणमें अवतारवाद स्थान -स्थानपर भरा हुआ है । यहाँ संक्षेपसे कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है। 
बालकाण्डमें श्रीशिवजी पार्वतीसे  कहते हैं -----
जब  जब  होई  धरम  कै हानि।  
बाढहिं असुर अधम अभिमानी।। 
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी।                      सीदहिं बिप्र धेनु सुर धेनु सुर धरनी।। 
तब  तब  प्रभु धरि बिबिध सरीरा। 
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।। 
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु। 
जग  बिस्तारहिं  बिसद जस  राम जन्   कर हेतु ।।
वाल्मीकीय रामायणमें लिखा है कि जब देवता और ऋषियोंने रावणके उपद्रवोंसे दुःखित हो ब्रह्माजीसे प्रार्थना की, तब ब्रह्माजी उन्हें सान्त्वना देने लगे। उसी समय भगवान् श्रीविष्णुके प्रकट होनेका वर्णन इस प्रकार आया है ------
एतस्मिन्नन्तरे      विष्णुरुपयातो   महाद्युतिः। 
शङ्खचक्रगदापाणिः  पीतवासा  जगत्पतिः।। 
वैनतेयं  समारुह्य  भास्करस्तोयदं   यथा     ।
तप्तहाटककेयूरो   वन्धमानः      सुरोत्तमैः    ।।
                                       (वा० रा०, १५।१६-१७)
'उसी समय महान्  तेजस्वी जगत्पति भगवान् विष्णु मेघपर आरुढ़ हुए -से सूर्यके समान गरुड़पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे। उनके शरीरपर पीताम्बर, हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा आदि आयुध एवं भुजाओंमें चमकीले स्वर्णके बाजूबंद शोभा पा रहे थे। सभी श्रेष्ठ देवताओंने उनको प्रणाम किया।'
भगवान् ने देवताओंकी प्रार्थनापर दशरथजीके घरमें मनुष्य -रुपसे अवतार लेना स्वीकार कर लिया ------
सत्ता क्रुरं  दुराधर्षं देवर्षीणां  भयावहता। 
दशवर्षसहस्त्राणि  दशवर्षशतानि     च।। 
वत्सयामि मानुषे लोके पालयन् पृथिवीमिमाम्। 
                               (वा० रा०, बाल० १५।२१-३०)
'देवता और ऋषियोंके भय देनेवाले उस क्रुर एवं दुर्धर्ष राक्षसका नाश करके मैं ग्यारह सहस्त्र वर्षोंतक इस पृथ्वीका पालन करता हुआ मनुष्यलोकमें निवास करुँगा। '
अध्यात्मरामायणमें कथा आति है ------ जब विश्वामित्रजी श्रीराम-लक्ष्मणको यज्ञरक्षार्थ ले जानेके लिये आये, उस समय दशरथजीके द्वारा सलाहके रुपमें पूछे जानेपर वसिष्ठजीने कहा ------
शृणु  राजन्   देवगुह्यां  गोपनीयं  प्रयत्नतः। 
रामो  न  मानुषो जातः परमात्मा सनातनः।। 
भूमेर्भारावताराय  ब्रह्मणा  प्रार्थितः   पुरा  ।
स एव  जातो  भवने  कौसल्लायां तवानघ ।।
                                 (अध्यात्म०, बाल० ४।१२-१३) 
'राजन् ! यह देवताओंकी गुह्य लीला सुनो, इसे किसी प्रकार प्रकट न होने देना चाहिये। ये राम मनुष्य नहीं हैं, साक्षात्  सनातन परमात्मा ही (अपनी मायासे)  इस  रुपमें प्रकट हुए हैं। अनघ !  पूर्वकालमें पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर उसे पूर्ण करनेके लिये उन परमेश्वरने ही तुम्हारे यहाँ कौसल्याके गर्भ से जन्म लिया है। '
चित्रकुटमें माता कैकेयीने श्रीरामसे क्षमा -प्रार्थना करते हुए कहा है --------

त्वं साक्षाद्  विष्णुरव्यक्तः परमात्मा सनातनः। 
मायामानुषरुपेण  मोहयस्यखिलं        जगत् ।।
                              (अध्यात्म०  अयोध्या ०   ९।५६)
'आप साक्षात्  विष्णु  भगवान्,  अव्यक्त परमात्मा और सनातन पुरुष हैं। अपने लीलामय मनुष्यरुपसे आप समस्त संसारको मोहित कर रहे हैं। '
रावणवधके अनन्तर ब्रह्मादि देवताओंसे बातचीत करते हुए श्रीरामने कहा कि 'मैं तो अपनेको दशरथपुत्र राम ही समझता हूँ। वास्तवमें मैं जो हूँ, जैसा हूँ आप ही बतलाइये। '  इसपर ब्रह्माजी श्रीरामका महत्व बतलाते हुए कहते हैं --------
भवान्   नारायणो   देवः  श्रीमांश्चक्रायुधः। 
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सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः  कृष्णः प्रजापतिः।। 
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वधार्थं   रावणस्येह   प्रविष्टो   मानुषीं     तनुम्  ।।
                          (वा० स,० युद्ध ० ११७। १३,२७,२८)
'आप साक्षात् चक्रपाणि लक्ष्मीपति प्रभु श्रीनारायणदेव हैं। सीता साक्षात्  लक्ष्मी हैं, और आप भगवान् विष्णु, कृष्ण * एवं प्रजापति हैं। आपने रावणवधके लिये ही 
  इस मनुष्यलोकमें मानवशरीर धारण किया है। भगवान् के परमधाम पधारनेके प्रकरणसे यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि श्रीराम साक्षात् पूर्णब्रह्म परमेश्वर थे। उस समय ब्रह्माजीके कथनानुसार भगवान् ने अपने भाइयोंके साथ इस मानवविग्रहसे ही उस वैष्णवतेजमें प्रवेश किया ----
विवेश वैष्णवं तेजः सशरीरः सहानुजः। 
                                (वा० रा०, उत्तर ० ११०। १२)
* यहाँ 'कृष्ण' नाम आया है, इससे सिद्ध होता है कि परमात्माका यह नाम अनादिकालसे प्रसिद्ध है,  कृष्ण -अवतार लेनेके कारणसे नहीं। 
इसी प्रकार गीता१, भागवत२ आदि ग्रन्थोंमें भी अवतारवादका उल्लेख स्थान -स्थानपर मिलता है। इसके संस्कार प्रायः हिंदुओंके हृदयमें स्वाभाविक ही अङ्कित हैं। यह है हिंदू -संस्कृति! Pampamsinghchauhan